एक साधारण सी क्लेरिकल गलती ने राजवीर सिंह यादव की जिंदगी को 17 साल तक उथल-पुथल में डाल दिया. पुलिस का इरादा उनके भाई रामवीर को गिरफ्तार करने का था, लेकिन गलत नाम के कारण राजवीर को 22 दिनों तक जेल की सलाखों के पीछे रहना पड़ा. इस गलती ने न केवल उनकी आजीविका छीनी, बल्कि उनके बच्चों की शिक्षा और मानसिक शांति को भी नष्ट कर दिया. अब, 55 वर्ष की आयु में, मैनपुरी की एक अदालत ने राजवीर को निर्दोष करार दिया है और पुलिसकर्मियों की "घोर लापरवाही" के लिए कार्रवाई का आदेश दिया है.
17 साल का लंबा संघर्ष
राजवीर ने शनिवार को एक मीडिया चैनल को बताया, "मैं बार-बार कहता रहा कि मैं वह व्यक्ति नहीं हूं, लेकिन किसी ने मेरी नहीं सुनी. मुझे बस उठाकर जेल भेज दिया गया." तीन बेटियों और एक बेटे के पिता राजवीर ने कहा, "मैंने 17 साल तक इस केस को लड़ा. उस समय किसी को नहीं पता था कि केस किसने दर्ज किया था बस मेरा नाम देखकर मुझे घसीट लिया गया. मैं काम नहीं कर सका, अपने बच्चों को पढ़ा नहीं सका. मैंने सब कुछ खो दिया." उन्होंने आगे कहा, "किसी तरह अपनी बेटियों की शादी कर पाया. मेरा बेटा पढ़ाई छोड़ने को मजबूर हुआ. हम बर्बाद हो गए. मैं चाहता हूं कि जिन अधिकारियों ने मेरे साथ यह किया, उन्हें जवाबदेह ठहराया जाए. कम से कम मुझे मेरे कष्टों का मुआवजा तो मिलना चाहिए."
कैसे शुरू हुआ यह मामला?
यह मामला 31 अगस्त 2008 का है, जब मैनपुरी पुलिस ने एक चुनावी विवाद से जुड़े झगड़े के बाद चार लोगों मनोज यादव, प्रवेश यादव, भोला यादव और रामवीर सिंह यादव के खिलाफ IPC की धारा 307 (हत्या का प्रयास) और SC/ST एक्ट के तहत FIR दर्ज की थी. सभी आरोपी मैनपुरी के नगला भांट गांव के थे. बाद में गैंगस्टर एक्ट भी जोड़ा गया. लेकिन, जब गैंग चार्ट तैयार किया गया, तब मैनपुरी कोतवाली के तत्कालीन SHO ओमप्रकाश ने बड़ी गलती की उन्होंने रामवीर की जगह राजवीर सिंह यादव का नाम दर्ज कर दिया.
पुलिस की गलती और अदालत का फैसला
राजवीर के वकील विनोद कुमार यादव ने बताया कि जांच को दन्नाहार थाने के तत्कालीन SHO शिवसागर दीक्षित को सौंपा गया था. 1 दिसंबर 2008 को राजवीर को गिरफ्तार कर लिया गया. जेल से, राजवीर ने आगरा की विशेष गैंगस्टर एक्ट कोर्ट में याचिका दायर की, जिसमें उन्होंने गलत नाम दर्ज होने की बात कही. 22 दिसंबर को इंस्पेक्टर ओमप्रकाश ने जज के सामने स्वीकार किया कि राजवीर का नाम "गलती से" जोड़ा गया था. उसी दिन कोर्ट ने उनकी रिहाई का आदेश दिया. तत्कालीन जज मोहम्मद इकबाल ने मैनपुरी के SSP को लापरवाह पुलिसकर्मियों के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई की सिफारिश भी की. लेकिन, इसके बावजूद, SI शिवसागर दीक्षित ने राजवीर के खिलाफ चार्जशीट दाखिल की, और मामला चलता रहा.
इंसाफ की जीत
17 साल बाद, मैनपुरी की अदालत ने राजवीर को बरी कर दिया और पुलिस की लापरवाही को जिम्मेदार ठहराया. यह मामला न केवल प्रशासनिक गलतियों का उदाहरण है, बल्कि यह भी दर्शाता है कि एक छोटी सी चूक किसी की जिंदगी को कैसे तबाह कर सकती है.