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पाकिस्तान की राह पर बांग्लादेश, चुनावी मैदान में कट्टरपंथी संगठन, शेख हसीना ने लगाया था बैन, भारत पर क्या होगा असर?

यूनुस के आलोचकों ने उन पर जमात के समर्थन से सत्ता पर काबिज होने का आरोप लगाया है, जिसने देश में छात्र आंदोलन का इस्तेमाल राजनीति में अपनी वापसी के लिए किया है. इससे पहले, अदालत ने संगठन के एक प्रमुख नेता एटीएम अजहरुल इस्लाम की सजा को पलट दिया था.

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Edited By: Reepu Kumari
Sheikh Hasina and muhammad yunus
Courtesy: Pinterest

जमात-ए-इस्लामी बांग्लादेश और उसकी छात्र शाखा चतरा शिबपुर ने अपना राजनीतिक दर्जा पुनः प्राप्त कर लिया है. सर्वोच्च न्यायालय ने उनका पंजीकरण बहाल कर दिया है. उन्हें भविष्य में चुनाव लड़ने के लिए चुनाव आयोग के साथ सूचीबद्ध होने की अनुमति दे दी है. इससे पहले पिछले वर्ष मोहम्मद युनूस सरकार ने कार्यभार संभालने के तुरंत बाद संगठन पर से बैन हटा लिया था. 2013 में अपना पंजीकरण खोने और चुनावों में भाग लेने से प्रतिबंधित होने के बावजूद जमात बांग्लादेश में सक्रिय रही है. शेख हसीना के सत्ता से बाहर होने के बाद हिंदुओं पर हमलों में शामिल होने का आरोप लगने के बाद अब यह राष्ट्रीय चुनावों से पहले खुद को फिर से स्थापित करने की कोशिश कर रही है.

यूनुस के आलोचकों ने उन पर जमात के समर्थन से सत्ता पर काबिज होने का आरोप लगाया है, जिसने देश में छात्र आंदोलन का इस्तेमाल राजनीति में अपनी वापसी के लिए किया है. इससे पहले, अदालत ने संगठन के एक प्रमुख नेता एटीएम अजहरुल इस्लाम की सजा को पलट दिया था, जिन्हें 1971 के बांग्लादेश मुक्ति युद्ध के दौरान बलात्कार, हत्या और नरसंहार के लिए 2014 में मौत की सजा सुनाई गई थी.

जमात का पाकिस्तान को समर्थन

जमात-ए-इस्लामी ने 1971 के युद्ध के दौरान पाकिस्तान का समर्थन किया था - उस समय के पूर्वी पाकिस्तान के इतिहास में हुए अत्याचार और नरसंहार के बावजूद. पाकिस्तान सरकार के आदेश पर पाकिस्तानी सेना ने बांग्लादेश के मुक्ति संग्राम के दौरान वहां के नागरिकों पर सामूहिक बलात्कार और हत्या सहित कई गंभीर अत्याचार किए थे.

पूर्व प्रधानमंत्री शेख हसीना ने आतंकी गतिविधियों में शामिल होने के कारण जमात-ए-इस्लामी पर कार्रवाई की थी.लेकिन जमात के बांग्लादेश की राजनीतिक जमीन पर फिर से कब्जा करने से पड़ोसी देशों, खासकर भारत के लिए गंभीर परिणाम सामने आ रहे हैं, जिसकी बांग्लादेश के साथ सबसे लंबी सीमा है.

पाकिस्तान बांग्लादेश में अपनी जगह फिर से बनाने की कोशिश कर रहा है, ऐसे में जमात के पुनरुत्थान से उसे वापस आने के लिए आवश्यक राजनीतिक स्थान मिल गया है. जमात-ए-इस्लामी का पाकिस्तान समर्थक रुख मुहम्मद यूनुस के 'पाकिस्तान के साथ मजबूत संबंध बनाने' के दावे के अनुरूप है.

यही कारण है कि बांग्लादेश में राजनीतिक विश्लेषकों का मानना ​​है कि यूनुस जमात के समर्थन से सत्ता में आए, जो छात्रों के विद्रोह के पीछे की ताकत थी, जबकि उनके आलोचकों का तर्क है कि वह जमात के समर्थन से सत्ता में अपना कार्यकाल बढ़ाना चाहते हैं.

भारत पर असर

अगर जमात अन्य देशों को समझाने तथा आम सहमति बनाने में सफल हो जाती है, तो इससे क्षेत्र में भारत के भू-राजनीतिक हित प्रभावित होंगे. भारत ने सित्तवे बंदरगाह और कलादान मल्टी-मॉडल ट्रांजिट ट्रांसपोर्ट प्रोजेक्ट (केएमटीटीपी) में निवेश किया है, जो म्यांमार में भारत की प्रमुख कनेक्टिविटी पहल है, जिसका उद्देश्य दक्षिण-पूर्व एशिया के साथ सड़क और समुद्री संपर्क को बढ़ाना है. यह भारत के पूर्वोत्तर क्षेत्र में एक वैकल्पिक पहुंच मार्ग भी प्रदान करेगा, जो वहां आर्थिक विकास में योगदान देगा. यह परियोजना म्यांमार में सित्तवे बंदरगाह को 225 किलोमीटर लंबे जलमार्ग के माध्यम से भारत-म्यांमार सीमा से पलेतवा तक जोड़ती है, जहां एक आईडब्ल्यूटी टर्मिनल स्थापित किया जा रहा है, इसके बाद वहां से दक्षिण मिजोरम में ज़ोरिनपुई में सीमा तक एक सड़क बनाई जाएगी.

जमात ने दक्षिण एशियाई अप्रवासी समुदायों के माध्यम से भी एक नेटवर्क स्थापित किया है. इस्लामिक राज्य की स्थापना का इसका घोषित उद्देश्य बहुलवाद के लोकाचार के विरुद्ध है, जो बांग्लादेश में वैचारिक स्थान से पीछे हटता हुआ प्रतीत होता है. जमात अपनी बात मनवा लेती है, तो पूर्वी हिस्से में पाकिस्तान के साथ घनिष्ठ संबंधों वाला एक कट्टरपंथी इस्लामिक राज्य भारत के लिए बड़ी सुरक्षा चिंताओं का कारण बन सकता है.

भारत के लिए लाल झंडा

नई दिल्ली स्थित सेंटर फॉर एयर पावर स्टडीज (CAPS) की रिसर्च एसोसिएट प्रियदर्शिनी बरुआ ने जमात की वापसी के लिए अवामी लीग के पतन और बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (BNP) के कमज़ोर होने के बाद पैदा हुए राजनीतिक शून्य को ज़िम्मेदार ठहराया.उन्होंने कहा कि इस तरह के कट्टरपंथी संगठन का उदय खतरे का संकेत है.