Dadasaheb Phalke: सोचिए, आज से सौ साल से भी पहले भारत में कैसा होगा? टीवी तो दूर, फिल्मों का नाम तक नहीं सुना गया था. ऐसे में अगर कोई कहता कि वो चलते-फिरते चित्र बनाएगा, तो शायद लोग उसे पागल ही समझते. मगर धुंडिराज गोविंद फाल्के, जिन्हें हम प्यार से दादासाहेब फाल्के के नाम से जानते हैं, वो सपने देखने और उन्हें हकीकत में बदलने वाले शख्स थे.
भारत के इतिहास में झांकें और सौ साल भी पीछे जाएं तो वहां साइलेंट फिल्मों का नाम तक नहीं सुना गया था. ऐसे अनदेखे संसार में कल्पना कीजिए, जहां धुंडिराज गोविंद फाल्के, या जैसा हम उन्हें प्यार से पुकारते हैं, दादासाहेब फाल्के, एक ऐसा सपना देखते थे जो हकीकत से परे लगता था - चलती फिरती तस्वीरों का जादू भारत में लाना. उनके इस जुनून की कहानी सिर्फ सिनेमा के जन्म की कहानी नहीं, बल्कि असंभव को हासिल करने की गाथा है. तो चलिए आज उन्हीं की कहानियों में झांकते हैं, जिन्होंने सिनेमा के जादू से पूरे भारत को रोमांचित कर दिया...
दादासाहेब की कला से प्यार बचपन से ही था. वो नाटकों में अभिनय करते, मूर्तियां बनाते, तस्वीरें खींचते- ये सब उनके जुनून की निशानियां थीं. मगर लंदन की यात्रा ने उनकी जिंदगी को एक नया मोड़ दिया. उन्होंने लंदन में चलती-फिरती तस्वीरें देखीं, तो उनकी जिंदगी बदल गई. उनका मन सिर्फ यही कहता था, "ये जादू भारत भी लाना है!" मगर राह आसान न थी. पैसे नहीं थे, टेक्नोलॉजी अनजानी थी, और लोग भी इस "हौवा" से सावधान थे. चलचित्रों का जादू उन्हें इस कदर मोहित कर गया कि उन्होंने ठान लिया, "ये कहानियां भारत के पर्दे पर भी झूम उठेंगी!"
रास्ता आसान नहीं था. पैसे की तंगी, टेक्नोलॉजी की अनजान गलियां, और समाज का संदेह - इन सबको पार करना आसान नहीं था. मगर फाल्के हार मानने वालों में से नहीं थे. उन्होंने अपना घर गिरवी रख दिया, महीनों जर्मनी में रहकर फिल्म निर्माण के गुर सीखे, खुद कैमरा बनाया, और एक स्टूडियो भी खड़ा कर दिया. दिन-रात की मेहनत, भूख सहना, हर मुश्किल को पार कर आखिरकार, 1913 में उनकी पहली फिल्म "राजा हरिशचंद्र" पर्दे पर आई. पौराणिक कथा पर आधारित ये फिल्म सिर्फ मनोरंजन नहीं देती थी, बल्कि सामाजिक संदेश भी छुपाए थी. ये वो किरण थी जिसने भारतीय सिनेमा का भविष्य रोशन किया. ये भारत की पहली फीचर फिल्म थी, और इसने इतिहास रच दिया!
दादासाहेब सिर्फ मनोरंजन नहीं देना चाहते थे, वो समाज का आईना दिखाना चाहते थे. उन्होंने "मोची गर्ल" बनाई, जिसमें दाढ़ी छिपाने के लिए लगाया गया चावल का आटा कैमरे में भूत बन गया, और फिल्म हिट हो गई. "लंका दहन" में उन्होंने रावण को बुराई न बताकर एक राजा के दुखों को दिखाया. उनकी हर फिल्म में कुछ कहानी छुपी थी, एक सीख, एक सवाल. ये कहानियां हंसाती थीं, सोचने पर मजबूर करती थीं, और समाज में बदलाव लाने की कोशिश करती थीं.
फाल्के ने फिल्मों का सिलसिला जारी रखा, नई टेक्नोलॉजी अपनाई, और फिल्म स्कूल खोलकर सिनेमा का भविष्य तैयार किया. उन्हें भारतीय सिनेमा का जनक कहा जाता है, और उनके नाम पर दिया जाने वाला दादासाहेब फाल्के पुरस्कार फिल्म इंडस्ट्री का सबसे बड़ा सम्मान है. आज सिनेमा जगत का जो वैभव है, वो इसी जुनून और सपने का नतीजा है.