देश के संविधान निर्माता डॉ भीमराव आंबेडकर या बीआर अंबेडकर ने विदेशों में पढ़ाई करने, संविधान लिखने और दबे-कुचले लोगों की आवाज उठाने का साथ ही चुनाव भी लड़े थे. 1951-52 में देश में पहला आम चुनाव हुआ था. इस चुनाव में बीआर अंबेडकर भी मैदान में उतरे थे. आज जिस तरह से बीजेपी की टिकट जीत की गारंटी है, उस जमाने में कांग्रेस की टिकट जीत की गारंटी मानी जाती थी. उस समय देश में जवाहर लाल नेहरू की लहर हुआ करती थी. वो दौर ऐसा था कि जिसको कांग्रेस का टिकट मिला उसको चुनाव में जीत मिल जाती थी.
पहले आम चुनाव में संविधान निर्माता डॉ. भीमराव अंबेडकर भी चुनाव लड़े. लेकिन उन्होंने एक गलती की और वह ये थी कि अंबेडकर शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन पार्टी से लड़े थे. लेकिन इस चुनाव में उन्हें हार का सामना करना पड़ा. बता दें कि नेहरू और अंबेडकर के बीच वैचारिक मतभेद थे, जिसके चलते अंबेडकर कांग्रेस से चुनाव नहीं लड़े.
पहले आम चुनाव में मतदान का काम फरवरी 1952 के आखिरी सप्ताह में खत्म हुआ. नतीजों में कांग्रेस आसानी से जीत गई. कांग्रेस को संसद में 489 में से 364 सीटों पर और पूरे देश में 3280 विधानसभा सीटों में से 2247 सीटों पर जीत हासिल हुई. आम चुनाव में कुल मतदाताओं का 45 फीसदी वोट हासिल हुआ था और इसने 74.4 फीसदी सीटों पर जीत दर्ज की थी. जबकि राज्य विधानसभाओं के चुनाव में कांग्रेस को कुल मतों का 42.4 फीसदी हासिल हुआ. इसने 68.6 फीसदी सीटों पर कब्जा जमाया था. लेकिन इस माहौल में भी कांग्रेस के 28 मंत्री चुनाव में हार गए थे.
इस चुनाव में सबसे ज्यादा हैरान करने वाला परिणाम अंबेडकर को लेकर था. डॉ. भीमराव अंबेडकर इस चुनाव में हार गए थे. उनकी पहचान देश भर में अनुसूचित जातियों के कद्दावर नेता के रूप में थी, लेकिन बंबई में उनके निर्वाचन क्षेत्र में कांग्रेस के पीए नारायण एस काजरोलकर को खड़ा किया था. वह भी बैकवर्ड क्लास से थे. इसके अलावा कम्युनिस्ट पार्टी और हिंदू महासभा से भी एक-एक प्रत्याशी था. नारायण काजरोलकर दूध का कारोबार करने वाले एक नौसिखिए नेता थे, लेकिन नेहरू की लहर इतनी तगड़ी थी कि नारायण काजरोलकर 15 हजार वोटों से जीत गए थे. इस चुनाव में अंबेडकर चौथे स्थान पर रहे थे. इतिहासकार रामचंद्र गुहा की किताब ‘भारत: गांधी के बाद’ के अनुसार मशहूर मराठी पत्रकार पी. के. अत्रे ने एक नारा गढ़ा था जो उस वक्त काफी मशहूर हुआ था.
कुथे तो घटनाकर अंबेडकर
आनी कुथे हा लोनिविक्या काजरोलकर
(इसका मतलब था :कहां संविधान के महान निर्माता अंबेडकर और कहां नौसिखिया दूध बेचने वाला काजरोलकर?)
इस चुनाव में कांग्रेस की पकड़ और प्रतिष्ठा काजरोलकर के पक्ष में काम कर गई. इसके अलावा नेहरू ने जो बंबई में जो भाषण दिए थे वो भी काजरोलकर के पक्ष में रहे. अंबेडकर आजादी के आंदोलन में सबसे प्रमुख शख्सियतों में एक थे. देश में उनके जैसा पढ़ा-लिखा उस समय शायद ही कोई था. इकोनॉमिक्स से दो डॉक्टरेट की डिग्रियां. एक अमेरिका की कोलंबिया यूनिवर्सिटी से, दूसरी लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स से. अंबेडकर की योग्यता को देखते हुए उन्हें संविधान की ड्राफ्टिंग कमिटी का चेयरमैन बनाया गया था.
हिंदू महासभा (अब बीजेपी) का दावा है कि नेहरू ने अंबेडकर को राजनीति की मुख्य धारा में नहीं आने दिया. अंबेडकर को हराने के लिए नेहरू ने चुनाव प्रचार भी किया. 1954 में भी नेहरू ने ही दूसरी बार पक्का किया कि वह भंडारा से उपचुनाव में न जीतने पाएं. डॉ. अंबेडकर का 1956 में निधन हो गया था.
पहले आम चुनाव में एक और चौंकाने वाली बात यह देखने के लिए मिली की नेहरू की लहर भले ही रही हो, लेकिन सबसे बड़ी जीत कम्युनिस्ट नेता रवि नारायण रेड्डी की थी, जिन्होंने चुनावों में व्हिस्की का पहला जाम पिया था. उन्होंने सबसे बड़ी जीत हासिल की थी. उनकी जीत का अंतर जवाहर लाल नेहरू की जीत के अंतर से भी ज्यादा था.