सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के दौरान गोपाल शंकरनारायण ने कहा कि विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) प्रक्रिया में 1 जनवरी 2003 के बाद मतदाता सूची में दर्ज हुए लोगों से नागरिकता साबित करने के लिए दस्तावेज मांगे जा रहे हैं, जबकि इससे पहले के मतदाताओं के लिए ऐसी कोई शर्त नहीं है. उन्होंने इसे भेदभावपूर्ण बताते हुए कहा कि यह प्रक्रिया जनप्रतिनिधित्व अधिनियम 1950 के प्रावधानों का उल्लंघन करती है. उन्होंने यह भी सवाल उठाया कि आधार और वोटर कार्ड जैसे दस्तावेजों को स्वीकार क्यों नहीं किया जा रहा है.
सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने याचिकाकर्ताओं से कहा कि वे यह साबित करें कि चुनाव आयोग की प्रक्रिया गलत है. जस्टिस धूलिया ने स्पष्ट किया कि मतदाता सूची का पुनरीक्षण चुनाव आयोग का संवैधानिक अधिकार है, लेकिन इसकी समयसीमा और प्रक्रिया पर सवाल उठाए जा सकते हैं. कोर्ट ने यह भी पूछा कि यदि 2003 की तारीख को कंप्यूटराइजेशन के आधार पर चुना गया है, तो इसमें क्या गलत है. जस्टिस बागची ने जनप्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 21(3) का हवाला देते हुए कहा कि आयोग को विशेष पुनरीक्षण का अधिकार है, लेकिन याचिकाकर्ता इस प्रक्रिया की वैधता को चुनौती दे सकते हैं.
विपक्षी दलों, जिनमें कांग्रेस, राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी), तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी), समाजवादी पार्टी, शिवसेना (यूबीटी), और अन्य शामिल हैं, ने इस प्रक्रिया को "वोटबंदी" करार दिया है. उनका आरोप है कि यह अभियान गरीब, दलित, पिछड़े, और अल्पसंख्यक समुदायों को मतदाता सूची से हटाने की साजिश है. आरजेडी नेता तेजस्वी यादव ने इसे "गोदी आयोग" की कार्रवाई बताते हुए कहा कि 2-3 करोड़ मतदाताओं के मताधिकार पर खतरा मंडरा रहा है. कांग्रेस प्रवक्ता पवन खेड़ा ने भी कहा कि यह प्रक्रिया मनमानी है और इससे लाखों लोग मतदान से वंचित हो सकते हैं.
चुनाव आयोग का पक्ष
चुनाव आयोग ने इन आरोपों को खारिज करते हुए कहा कि यह प्रक्रिया पारदर्शी है और इसका उद्देश्य मतदाता सूची को त्रुटिरहित बनाना है. मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार ने कहा कि बिहार में 57% से अधिक आवेदन प्रपत्र अब तक एकत्र किए जा चुके हैं, और मतदाताओं ने इसमें उत्साहपूर्वक भाग लिया है. आयोग ने यह भी स्पष्ट किया कि 2003 के बाद के मतदाताओं से दस्तावेज इसलिए मांगे जा रहे हैं, क्योंकि उस समय से मतदाता सूची का डिजिटलीकरण शुरू हुआ था.