तृणमूल कांग्रेस के सांसद साकेत गोखले ने पूर्व राजनयिक लक्ष्मी मुर्देश्वर पुरी से बिना शर्त सार्वजनिक माफी मांगकर एक लंबे समय से चल रहे मानहानि मामले को समाप्त कर दिया. 2021 में उनके ट्वीट्स में पुरी द्वारा स्विट्जरलैंड के जेनेवा में संपत्ति खरीदने पर झूठे सवाल उठाए गए थे.
मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक, दिल्ली हाई कोर्ट के आदेश पर यह माफी तब आई, जब बार-बार देरी और गैर-अनुपालन के लिए नागरिक हिरासत की चेतावनी दी गई थी. ₹50 लाख के हर्जाने के साथ, अदालत ने गोखले को और कोई मानहानिकारक टिप्पणी करने से भी रोक दिया.
आरोप, विवाद और माफी का चक्र
यह मामला कोई अकेला उदाहरण नहीं है. यह विपक्षी नेताओं के एक दोहराए जाने वाले पैटर्न को दर्शाता है, जहां वे बिना सबूत के उत्तेजक आरोप लगाते हैं और जब कानून या तथ्य सामने आते हैं, तो पीछे हट जाते हैं. राहुल गांधी से लेकर दिग्विजय सिंह तक, कांग्रेस नेताओं ने बार-बार यही रणनीति अपनाई. विवाद पैदा करो, मीडिया में चर्चा बटोरो, और फिर कानूनी दबाव बढ़ने पर चुपके से माफी मांग लो. चाहे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) को ऐतिहासिक हत्याओं में घसीटना हो, प्रधानमंत्री पर कीचड़ उछालना हो, या सर्जिकल स्ट्राइक जैसे राष्ट्रीय सुरक्षा अभियानों का राजनीतिकरण करना हो. ऐसे बेतुके दावों के बाद अक्सर अदालत में माफी मांगने की नौबत आती है.
राहुल गांधी की बार-बार की माफी
2014 में राहुल गांधी ने RSS को महात्मा गांधी की हत्या के लिए जिम्मेदार ठहराया. जब मानहानि का मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा, तो उन्हें स्पष्ट करना पड़ा कि उनके बयान RSS से “जुड़े व्यक्तियों” पर थे, न कि संगठन पर. शुरुआती आक्रामकता के बावजूद, मुकदमे के दौरान उन्होंने अपने दावे वापस लिए. 2016 में, राहुल ने सर्जिकल स्ट्राइक का राजनीतिकरण करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर “खून की दलाली” का आरोप लगाया. जनता के आक्रोश के बाद उन्हें स्पष्टीकरण देना पड़ा कि वह सशस्त्र बलों का समर्थन करते हैं और उनके कामों के राजनीतिक दुरुपयोग की निंदा करते हैं.
2019 में राफेल सौदे के विवाद के दौरान, राहुल ने “चौकीदार चोर है” नारे को सुप्रीम कोर्ट के फैसले से जोड़ा, जिससे जनता में यह भ्रम फैला कि कोर्ट ने भ्रष्टाचार के आरोपों की पुष्टि की. सुप्रीम कोर्ट की आपराधिक अवमानना नोटिस के बाद उन्होंने बिना शर्त माफी मांगी, यह स्वीकार करते हुए कि बयान चुनावी जोश में दिए गए थे.
कांग्रेस नेताओं की माफी का सिलसिला
राहुल गांधी अकेले नहीं हैं. मणिशंकर अय्यर, जयराम रमेश, संजय सिंह और दिग्विजय सिंह जैसे वरिष्ठ नेताओं को भी बिना सबूत के बयानबाजी के बाद माफी मांगनी पड़ी. 2017 में, अय्यर ने प्रधानमंत्री मोदी को “नीच किसम का आदमी” कहा, जिसे अभिजात्य और जातिवादी माना गया. कांग्रेस ने उन्हें निलंबित कर नुकसान नियंत्रण के लिए माफी जारी की. अय्यर ने बाद में दावा किया कि उनका मतलब “निम्न स्तर का व्यवहार” था, लेकिन विवाद थमा नहीं.
2019 में, जयराम रमेश ने एक असत्यापित लेख के आधार पर राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल के बेटे विवेक डोभाल पर वित्तीय अनियमितता का आरोप लगाया. मानहानि मुकदमे के बाद, रमेश ने लिखित माफी दी, यह स्वीकार करते हुए कि उन्होंने दावों की पुष्टि नहीं की थी.
संजय सिंह ने 2017 में AAP नेता कपिल मिश्रा पर हमले में BJP युवा सदस्य अंकित भारद्वाज को गलत तरीके से फंसाया. बाद में आरोप निराधार साबित हुए, और सिंह को सार्वजनिक माफी मांगनी पड़ी, यह स्वीकार करते हुए कि यह पहचान की गलती थी. 2023 में, दिग्विजय सिंह ने RSS विचारक एम.एस. गोलवलकर के बारे में मानहानिकारक सामग्री पोस्ट की, जिसके बाद 2024 में अदालत ने उन्हें लिखित माफी देने का आदेश दिया.
“गांधी कभी माफी नहीं मांगते” का सच
इन सभी मामलों में एक समानता है: बिना सबूत के भड़काऊ बयान, राजनीतिक लाभ के लिए नैरेटिव बनाना, और कानूनी दबाव या जनता के गुस्से के बाद माफी. राहुल गांधी ने 2014 के एक साक्षात्कार में दावा किया था, “गांधी कभी माफी नहीं मांगते.” यह बयान अब हास्यास्पद लगता है, क्योंकि हर नए विवाद के बाद अदालत या नुकसान नियंत्रण के लिए माफी मांगी जाती है.
सार्वजनिक विश्वास पर सवाल
साकेत गोखले की माफी इस व्यापक समस्या का एक छोटा सा उदाहरण है, बिना सत्यापन के दावे, सनसनीखेज बयानबाजी, और राजनीतिक लाभ की चाहत, जो अंततः कानूनी जांच में धराशायी हो जाती है. ऐसे में बड़ा सवाल यह है कि बिना आधार के आरोपों और देर से मांगी गई माफी का यह चक्र कब तक चलेगा, और यह कब तक जनता का विश्वास खो देगा?