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'बिगड़ा हुआ बच्चा, अनुशासन सिखाना जरूरी...', पुणे और उत्तराखंड केस से समझें 'बच्चों की गलती' क्यों नहीं हुई माफ?

बच्चा शैतानी कर सकता है लेकिन शैतान नहीं हो सकता है. उसकी कई गलतियां कानून माफ करता है लेकिन जब वे हैवान बन जाए तो उस पर अंकुश भी लगता है. बच्चा होने का लाभ तो मिल जाता है लेकिन कानून चुपके से अपराधी के पर कुतरना भी जानता है.

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Abhishek Shukla
Law
Courtesy: Social Media.

'बच्चे मन के सच्चे, ये जग की आंख के तारे, ये वो नन्हे फूल हैं जो भगवान को लगते प्यारे.' जब साहिर लुधियानवी ने ये गीत लिखा था, तब उन्हें जरा भी नहीं पता था कि महाराष्ट्र में एक 'बच्चा' अपनी हैवानियत की हदें पार कर जाएगा और दो मासूमों की जिंदगी लील लेगा. उन्हें ये भी नहीं पता था कि उत्तराखंड में एक बच्चा, एक लड़की का आपत्तिजनक वीडियो शेयर करेगा, जिसकी कीमत उस 14 साल की बच्ची की जान होगी. ये न इनका बचपना था, न शैतानी, यह शैतान बनने की ओर बढ़ते कदम हैं, जिन पर अदालतें अंकुश नहीं लगाएंगी तो समाज में इन्हें हैवान होते देर नहीं लगेगी.

उत्तराखंड और महाराष्ट्र की एक अदालत के फैसले ऐसे हैं, जो साबित करते हैं कि बच्चा होने के नाम पर आपको हैवान हो जाने की छूट नहीं मिलती. आप जो अपराध करते हैं, उसके बारे में अगर आप जानते हैं तो पहली बात आप बच्चे नहीं हैं, आपके खिलाफ भी एक्शन होके रहेगा.

शर्मनाक हरकतें, खतरनाक अपराध, फिर किस बात का 'बच्चा?'
उत्तराखंड में एक नाबालिग ने एक 14 साल की लड़की  का एक ऐसा वीडियो वायरल कर दिया, जिसकी वजह से लड़की को भारी शर्मिंदगी हुई और उसने खुदकुशी कर ली. 10 जून को जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड हरिद्वार ने नाबालिग की जमानत याचिका खारिज कर दी. बोर्ड के लिए यह जरा भी आसान नहीं था क्योंकि जब भी बच्चों के अपराध से जुड़े मामले आते हैं, कानून सबसे पहले बच्चों के हक में दीवार बनकर खड़े हो जाते हैं. नाबालिग पर भारतीय दंड संहिता की धारा 305, 509 और 509, पॉक्सो एक्ट की धारा 13 और 14 के तहत एक्शन केस चला था. 

उत्तराखंड हाई कोर्ट ने बोर्ड के फैसले को बरकरार रखा तो नाबागिल के पेरेंट्स, सुप्रीम कोर्ट चले गए. उन्होंने मांग की कि बच्चे को बाल सुधार गृह न भेजा जाए, उसे मां-बाप के घर रहने दिया जाए. जस्टिस बेला एम त्रिवेदी और जस्टिस पंकज मिट्ठल की बेंच ने भी हाई कोर्ट के आदेश को बरकरार रखा. 

क्यों बच्चे होने की वजह से कोर्ट ने नहीं दी छूट?
एक लड़की 22 अक्टूबर 2023 को लापता होती है, उसकी लाश एक जगह पड़ी मिलती है. पिता आरोप लगाते हैं कि उसकी बेटी ने शर्म की वजह से खुदकुशी कर ली. एक लड़के पर पॉक्सो एक्ट के तहत केस होता है, आरोप लगते हैं कि उसने एक महिला का शील भंग किया है और उसे खुदकुशी के लिए उकसाया है.

1 अप्रैल को हाई कोर्ट ने उसे जमानत देने से खारिज कर दिया. कोर्ट ने कहा कि अगर बच्चा होने की वजह से कानूनी अड़चन पड़ती है तो हर अपराध जमानतीय है लेकिन बेल तब खारिज की जा सकती है अगर उसकी वजह से न्याय, अन्याय में बदल जाए. हाई कोर्ट कहता है कि यह बच्चा खराब संगति में है, वह अनुशासनहीन है, ऐसा हो सकता है कि उसे बेल मिले तो वह अपराधियों के साथ जा मिले. भविष्य में भी वह कई कांड कर सकता है. 

अपराधी बच्चे को आजाद नहीं छोड़ेगी अदालत
कोर्ट का साफ कहना है कि बच्चा होने की वजह से कानूनी छूट तो मिल जाती है लेकिन ऐसा भी नहीं है कि आप बचपने के नाम पर संगीन अपराध करें और आपको अदालत दोबारा, वही अपराध करने के लिए आजाद छोड़ दे. आपको बाल सुधार गृह में रहना होगा और समाज में रहने लायक आपको बर्ताव अपनाना पड़ेगा. बच्चे, अगर बच्चे हैं तो ठीक है, अगर अपराधी बनते हैं तो कानून अपना डंडा चलाएगा.

सिर्फ यहीं, महाराष्ट्र के भी एक मामले में कुछ ऐसा ही हुआ है. महाराष्ट्र के पुणे जिले में एक मशहूर रियल स्टेट कारोबारी विशाल अग्रवाल के बेटे ने एक बाइक को पोर्शे कार से टक्कर मारी, जिसमें दो लोगों ने जान गंवा दी. दोनों 20 फिट हादसे के वक्त हवा में उछल गए थे. नाबालिग ने पब में शराब पी थी और वह नशे में था. इस केस में जुवेनाइल बोर्ड ने निबंध लिखने और आरटीओ दफ्तर में सीखने की बात कहकर छोड़ने का मन बना लिया था लेकिन सजग लोगों की वजह से ऐसा हो नहीं पाया. लोगों ने इसका विरोध करना शुरू कर दिया. 

17 वर्ष के नाबालिग को बाल सुधार गृह में कोर्ट ने 5 जून तक भेजा है. आरोपी पर पुलिस वयस्क की तरह केस चलाने की इजाजत भी मांग ली है. इस केस में कई गिरफ्तारियां हो चुकी हैं. सवाल यह है कि जिसे पता है कि क्लब में शराब पी जाती है, जिसे पता है तेज गाड़ी चलाने से एक्सीडेंट हो सकता है, सब जानने के बाद भी अगर कोई गलती करे तो वह बच्चा नहीं है. गाड़ी चलाने की सही उम्र 18 साल है लेकिन अगर किसी पर शैतान सवार हो तो उसे न नियमों की फिक्र होती है, न ही कानूनों की. कानून धज्जियां उड़ाने वालों को बख्शता नहीं है. यही वजह है कि उसकी जमानत याचिका खारिज हुई है. अब आइए जानते हैं कि आखिर, 18 साल से कम उम्र के अपराधियों पर कोर्ट इतना रहम क्यों दिखाती है.

अब कितने हुए हैं बदलाव?
साल 2015 के बाद जुवेनाइल जस्टिस एक्ट में कई बदलाव हुए हैं. इसके बाद किशोरों का भी ट्रायल वयस्कों की तरह होने लगा है. इसमें किशोर की उम्र घटाकर 16 साल की गई थी, जिसकी वजह से जघन्य अपराधों में उनके साथ बालिगों की तरह बर्ताव हो सकता है. लोकसभा में 2015 में संसद की दोनों सदनों से केस पास हो गया था. ऐसे मामलों में 3 साल से लेकर 7 साल की सजा भी मिल सकती है. कुछ मामलों में ये सजा उम्र कैद तक दी जा सकती है. ऐसे में अगर बच्चा, बच्चों की तरह शैतानी करे तो उसे बचाया जा सकता है लेकिन वह शैतान बन जाए तो उस पर अदालतें भी रहम नहीं दिखाएंगी.

क्यों अपराध करके भी बच जाते हैं बच्चे?
दिल्ली लीगल सर्विस अथॉरिटी के अधिवक्ता विशाल अरुण मिश्र बताते हैं कि ज्यूरिसप्रूडेंस या विधि शास्त्र कहता है कि अपराध करने के लिए Mens Rea का होना अनिवार्य होता है. मेंन्स रिया लैटिन शब्द है, जिसका अर्थ होता है दोषी मन:स्थिति. अगर आप आपराधिक मकसद के साथ कोई अपराध करते हैं तो माना जाता है कि आप अपराधी हैं और आपने अपराध कारित किया है. भारतीय दंड संहिता भी 7 साल से कम उम्र बच्चों के अपराधों को अपराध नहीं मानती है. इससे ज्यादा के अपराधों पर बाल सुधार गृह में बच्चे भेजे जाते हैं लेकिन उन्हें भी आम अपराधियों की तरह सजा नहीं मिलती. अगर ऐसा होता तो निर्भया केस में सबसे ज्यादा गुनहगार जो किशोर था, उसे 3 साल बाद रिहाई नहीं मिलती, जबकि उसके साथ शामिल अन्य लोगों को फांसी हो गई थी.

सुप्रीम कोर्ट के एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड विशाल अरुण मिश्र बताते हैं कि जुवेनाइल जस्टिस एक्ट 2015 की कुछ खामिया हैं, जिन्हें अब भी सुधारने की जरूरत है. वजह यह है कि अब हर हाथ में सूचनाओं का अंबार है. 15 साल तक पहुंचते-पहुंचते बच्चे इतने जानकार हो जाते हैं कि उन्हें पता होता है कि वे क्या अपराध कर रहे हैं, क्या अपराध है और क्या इसका अंजाम हो सकता है. जघन्य अपराधों में अगर उन्हें जेल में नहीं रखा जाता है तो वे समाज के लिए समस्या पैदा कर सकते हैं.

18 साल से कम उम्र के अपराधियों को बाल सुधार गृह में रखा जाता है. इसके पीछे का विधिशास्त्र यह है कि जिससे वे किसी दुर्दांत अपराधी की संगत में आकर वैसा ही काम छूटने के बाद न करने लगें. उन्हें सुधार का एक अवसर मिलना चाहिए और बाल सुधार गृह में उन्हें सुधारा ही जाता है. 

एडवोकेट विशाल अरुण मिश्र बताते हैं कि संविधान हमेशा समानता की बात करता है. 16 और 18 से कम उम्र के अपराधियों को जेल से अलग रखना, संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन है, ये बात सतही तौर पर हमें समझ आती है. पर हकीकत इससे अलग है. संयुक्त राष्ट्र अधिवेश 1992 में यह तय किया गया था कि 18 साल से कम उम्र के अपराधियों को बच्चों की तरह ही समझना चाहिए. इस अधिवेश पर भारत के भी हस्ताक्षर हैं. नए संशोधनों में प्रवाधान कड़े किए गए हैं लेकिन पूरी तरह से नहीं.

एडवोकेट सौरभ भरद्वाज के मुताबिक 16 से 18 साल की उम्र के अपराधियों पर नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े डराते हैं. आर्थिक तौर पर पिछड़े तबके से आने वाले बच्चे ज्यादा अपराध करते हैं लेकिन यह अंतिम सत्य नहीं है. रईसजादे भी अपराध करते हैं और अपराध एक मनोवृत्ति है, जिसे सुधारना टेढ़ी खीर है. विधिशास्त्र का एक प्रचलित सिद्धांत है कि अगर अपराधी दुर्दांत अपराध करते हैं तो उन्हें समाज से अलग रखा जाना चाहिए जिससे उन्हें समाज में दोबारा अपराध करने की छूट न मिले. इस सिद्धांत को 'निरोधात्मक सिद्धांत' के नाम से भी जानते हैं.