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India Daily

'संविधान बचाओ' के नारे पर भारी पड़ रहा अंबेडकर के साथ कांग्रेस का अतीत

कांग्रेस और डॉ. बी.आर. आंबेडकर के बीच वैचारिक टकराव लगभग एक सदी पुराना है. सबसे ज्वलंत घटना 1930 के दशक में हुई, जब दलितों के लिए अलग निर्वाचिका की आंबेडकर की मांग का महात्मा गांधी ने विरोध किया और आमरण अनशन पर बैठ गए.

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Edited By: Gyanendra Sharma
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Courtesy: Social Media

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस खुद को भारत के संवैधानिक मूल्यों की संरक्षक के रूप में पेश करती रही है और "संविधान बचाओ" जैसे नारों के सहारे एकजुट होती रही है. इसी सोच ने पार्टी को 2024 के लोकसभा चुनावों में 99 सीटें हासिल करने में मदद की है जो 2014 के बाद से उसका सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन है. हालांकि, आलोचकों का तर्क है कि यह दावा कांग्रेस के ऐतिहासिक रिकॉर्ड के साथ मेल नहीं खाती है विषेश रूप से डॉ. बी.आर. अंबेडकर के साथ उसके असहज संबंध और संवैधानिक हस्तक्षेपों की विरासत, जिसने अक्सर लोकतांत्रिक संस्थाओं को कमजोर किया.

कांग्रेस और डॉ. बी.आर. आंबेडकर के बीच वैचारिक टकराव लगभग एक सदी पुराना है. सबसे ज्वलंत घटना 1930 के दशक में हुई, जब दलितों के लिए अलग निर्वाचिका की आंबेडकर की मांग का महात्मा गांधी ने विरोध किया और आमरण अनशन पर बैठ गए. दबाव में आकर आंबेडकर ने पूना समझौते पर हस्ताक्षर किए, जिसके तहत आरक्षित सीटों के साथ संयुक्त निर्वाचिका पर सहमति बनी एक ऐसा समझौता जिसे कई दलितों ने ज़बरदस्ती किया हुआ माना.

विडंबना यह है कि संविधान निर्माण में आंबेडकर की महत्वपूर्ण भूमिका के बावजूद, कांग्रेस ने उन्हें कभी संविधान सभा के लिए मनोनीत नहीं किया. उन्हें मुस्लिम लीग की मदद से बंगाल से एक सीट के ज़रिए अपनी जगह बनानी पड़ी. विभाजन के बाद ही कांग्रेस ने उनके महत्व को समझते हुए, उन्हें बंबई से निर्वाचित होने दिया.

नेहरू बनाम अंबेडकर

कानून मंत्री और संविधान प्रारूप समिति के अध्यक्ष के रूप में अंबेडकर को नेहरू मंत्रिमंडल के भीतर से ही भारी विरोध का सामना करना पड़ा. नेहरू ने आरक्षण के पैमाने और स्थायित्व पर आपत्ति जताई और उन्हें सामान्यता की चिंता थीये तर्क आज भी सामने आते हैं. हिंदू कोड बिल, जिसका अंबेडकर ने हिंदू पर्सनल लॉ में सुधार के लिए पूरे जोश से समर्थन किया था, नेहरू सरकार द्वारा रोक दिया गया और उसे कमज़ोर कर दिया गया, जिसके परिणामस्वरूप अंततः 1951 में अंबेडकर को इस्तीफा देना पड़ा.

बाद के चुनावों में कांग्रेस ने आंबेडकर के खिलाफ उम्मीदवार खड़े किए और उन्हें हराने के लिए सक्रिय रूप से प्रचार किया. पार्टी ने आंबेडकर के अनुसूचित जाति महासंघ का मुकाबला करने के लिए दलित नेताओं और संगठनों को भी आगे बढ़ाया, आलोचकों का कहना है कि इस कदम ने स्वतंत्र दलित राजनीतिक दावेदारी को कमजोर कर दिया.

संवैधानिक संशोधन और केंद्रीकृत नियंत्रण

संवैधानिक अखंडता के मामले में कांग्रेस का अपना ट्रैक रिकॉर्ड भी विवादास्पद रहा है. 1951 में नेहरू के पहले संशोधन ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाया था - जिसकी अंबेडकर ने खुलकर आलोचना की थी. लेकिन इसका सबसे ज़्यादा दुरुपयोग इंदिरा गांधी के आपातकाल (1975-77) के दौरान हुआ, जब प्रधानमंत्री को न्यायिक जाँच से बचाने और संविधान के मूल ढाँचे में बदलाव लाने के लिए 39वें और 42वें संशोधन पारित किए गए. इस दौरान, कांग्रेस ने अनुच्छेद 356 का भी हथियार के रूप में इस्तेमाल किया, विपक्ष के नेतृत्व वाली राज्य सरकारों को अपनी मर्ज़ी से बर्खास्त किया, जिससे भारत का संघीय ढाँचा कमज़ोर हुआ. चुनाव आयोग जैसी संस्थाएँ कड़े कार्यकारी नियंत्रण में रहीं, और राजनीति में दलबदल और धनबल पर अंकुश लगाने वाले सुधारों में या तो देरी हुई या उन्हें कमज़ोर कर दिया गया.

विलंब और इनकार का इतिहास

आज कांग्रेस के नेता जाति जनगणना और जितनी आबादी, उतना हक की बात करते हैं. लेकिन ऐतिहासिक रूप से, कांग्रेस सरकारें इस रास्ते पर चलने से हिचकिचाती रही हैं. 1980 में पेश की गई मंडल आयोग की रिपोर्ट इंदिरा और राजीव गांधी के शासनकाल में लगभग एक दशक तक ठंडे बस्ते में पड़ी रही. इसे 1990 के दशक में एक गैर-गांधी कांग्रेसी प्रधानमंत्री  पीवी नरसिम्हा राव ने ही लागू किया था.

मल्लिकार्जुन खड़गे को दशकों में पहला दलित कांग्रेस अध्यक्ष नियुक्त करने जैसे हालिया कदमों को भी कई लोग प्रतीकात्मक ही मानते हैं. पार्टी के शीर्ष नेतृत्व में उनके अधिकार की वास्तविक सीमा को लेकर सवाल बने हुए हैं.

भाजपा ने दिया आंबेडकर को सम्मान

भाजपा ने खुद को आंबेडकर की विरासत के सच्चे पथप्रदर्शक के रूप में स्थापित किया है स्मारकों का नामकरण, "पंचतीर्थ" जैसी योजनाओं को बढ़ावा देना और द्रौपदी मुर्मू तथा रामनाथ कोविंद जैसे नेताओं को सर्वोच्च संवैधानिक पदों पर आसीन करना. आलोचक इसे रणनीतिक दिखावा मानते हैं, लेकिन दलित और आदिवासी समुदायों के कई लोगों के लिए, यह प्रतिनिधित्व में एक ठोस बदलाव का प्रतीक है.

संविधान की रक्षा के लिए कांग्रेस की नई प्रतिबद्धता उसके ऐतिहासिक निर्णयों के साथ असहज रूप से सामने आती है जिसमें अंबेडकर का विरोध करना और उनके सुधारों को कमजोर करना, आपातकाल के दौरान संविधान में परिवर्तन करना और सामाजिक न्याय के उपायों में देरी करना शामिल है. हालांकि कोई भी पार्टी बेदाग रिकॉर्ड का दावा नहीं कर सकती, लेकिन अंबेडकर की विरासत का ज़िक्र तभी सार्थक होता है जब उसके साथ लगातार काम भी किया जाए. जैसे-जैसे भारत नए सिरे से संवैधानिक बहसों के दौर में आगे बढ़ रहा है, अतीत एक आईना बनकर रह गया है और कांग्रेस के लिए यह प्रतिबिंब जटिल है.