इलाहाबाद हाई कोर्ट (allahabad high court) ने कहा है कि अगर कोई महिला आपसी सहमति से तलाक के समय अपने पति से गुजारा भत्ता नहीं लेती है, तो वह बाद में इसकी मांग नहीं कर सकती. न्यायमूर्ति विपिन चंद्र दीक्षित की पीठ ने फैमिली कोर्ट के उस आदेश पर रोक लगा दी, जिसमें पति को गुजारा भत्ता के रूप में 25 हजार रुपये महीने का भुगतान करने का निर्देश दिया गया था.
सुनवाई के दौरान अदालत ने पाया कि पत्नी 2006 से अपने पति से अलग रह रही थी. इसके अलावा, तलाक पर आपसी सहमति हुई थी, जिसमे पत्नी ने जानबूझकर भरण-पोषण का दावा करने के अपने अधिकार को छोड़ दिया था. इसलिए, अदालत ने माना कि फैमिली कोर्ट से गलती हुई है.
2006-07 में हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 13बी(1) के तहत पति और पत्नी दोनों ने आपसी सहमति से तलाक की मांग करते हुए एक याचिका दायर की थी. तलाक की शर्तों पर सहमति हुई, जिसमें यह भी शामिल था कि पत्नी अपने पति से भरण-पोषण का कोई दावा नहीं करेगी. इसमें नाबालिग बेटे की कस्टडी मां को दे दी गई.
पहले बेटे ने फिर 6 साल बाद पत्नी ने मांगा गुजारा भत्ता
तलाक के बाद पत्नी अपने बेटे के साथ अलग रहने लगी. हालांकि, 2013 में तलाक के लगभग छह साल बाद नाबालिग बेटे की ओर से अपने पिता से भरण-पोषण की मांग की गई. कोर्ट ने पिता को अपने बेटे को 15,000 रुपये प्रति माह गुजारा भत्ता देने का निर्देश दिया गया था. इसके बाद, पत्नी ने भी अपने पति से उसकी आय के 25% के बराबर गुजारा भत्ता मांगा.
कोर्ट को रास नहीं आया पत्नी का तर्क
पत्नी का कहना था कि वह बड़ी आर्थिक तंगी का सामना कर रही है और उसका बेटा कनाडा में पढ़ रहा है और इसलिए, उसे अपने बेटे की शिक्षा पर बहुत बड़ी राशि खर्च करनी पड़ रही है. उसने तर्क दिया कि तलाक के समय वह एक निजी कंपनी में काम करती थीं और उसे 1,86,000 रुपये वेतन मिलता था, लेकिन वर्तमान में उसकी आय केवल 75,000 रुपये है. जबकि उनके पति की आय लगभग 4,50,000 रुपए प्रति माह है.