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मीर जाफर के 'गद्दार' टैग से जूझ रहा परिवार, 267 साल बाद भी नहीं मिटा पाया कलंक!

Mir Zafar: 267 साल होने का बाद भी मीर जाफर की संतान 'गद्दार' का दाग मिटाने के लिए संघर्ष कर रही है. मीर जाफर के 14वें परपोते, सैयद रज़ा अली मिर्ज़ा ने इसके बारे में एक इंटरव्यू में विस्तार से बताया.

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Mir Zafar
Courtesy: Social Media

Mir Zafar Family: बंगाल के राजनीतिक विमर्श में मीर जाफर का नाम लंबे समय से गद्दार' (देशद्रोही) रूप में इस्तेमाल किया जाता रहा है.  निर्णायक लड़ाई के 267 साल बाद भी जिसने बंगाल को ब्रिटिश के कंट्रोल में ला दिया, वह विरासत इतनी गहरी कि  मीर जाफ़र के संतान अपने पूर्वजों के विश्वासघात से दूरी बनाना चाहते हैं. दरअसल 1757 में प्लासी की लड़ाई में बंगाल के नवाब सिराज-उद-दौला के सबसे भरोसेमंद जनरलों में से एक मीर जाफर ब्रिटिश पक्ष में चले गए, जिससे ईस्ट इंडिया कंपनी की जीत हो गई थी.

मीर जाफर के संतान कर रहे हैं संघर्ष 

इस बात को 267 साल हो गए हैं. लेकिन अब भी मीर जाफर की संतान 'गद्दार' का दाग मिटाने के लिए संघर्ष कर रही है. TOI इंडिया ने मीर जाफ़र के 14वें परपोते, सैयद रज़ा अली मिर्ज़ा से मुलाकत की. इस दौरान सैयद रज़ा अली मिर्ज़ा ने इसका जिक्र करते हुए बताया कि किस तरह गाली उनके परिवार को परेशान करती है. उन्होंने बताया कि ड्राइंग-कम-बेडरूम की दीवार पर उनके सभी पूर्वजों की तस्वीरें हैं, यहां तक ​​कि नवाब सिराज-उददौला की भी, लेकिन मीर जाफर की नहीं है. 

'सिक्के को नहीं बदल सकता'

बता दें, 80 के दशक की शुरुआत में, छोटे नवाब के नाम से जाने जाने वाले मिर्ज़ा, परिवार की प्रतिष्ठा और समृद्धि में भारी गिरावट के बावजूद फुर्तीले और मिलनसार हैं. वह अब साइकिल चलाता है लेकिन उसे शाही हाथी पर स्कूल जाना अच्छी तरह याद है. जब उनसे सवाल पूछा गया कि क्या आपको गुस्सा नहीं आता है जब मीर जाफर को चुनावों में राजनीतिक गद्दार बताते हैं. इसपर सैयद रज़ा अली मिर्ज़ा ने जवाब देते हुए कहा कि "क्या करें? मैं अपने 14वें परदादा के नाम से जुड़े इतिहास की धारा को नहीं बदल सकता, न ही मैं लोकप्रिय सिक्के को बदल सकता हूं. वह आगे पूर्वज का बचाव करने की कोशिश करते हुए कहते हैं कि भले ही मीर जाफर  घसेटी बेगम द्वारा रची गई मूल साजिश का हिस्सा नहीं थे. संग-ए-दलान, मोतीझील में कंपनी के कासिमबाजार प्रमुख जगत सेठ थे विलियम वॉट्स और रॉबर्ट क्लाइव थे.


छोटे नवाब के बेटे ने कही यह बात

छोटे नवाब के बेटे, फहीम मिर्जा, एक प्राथमिक विद्यालय के शिक्षक और बंगाल सरकार संचालित लालबाग नगर पालिका में वार्ड 10 के हैं. बातचीत के दौरान उन्होंने बताया कि मेरे परदादा वासिफ अली मिर्जा, जो शेरबोर्न स्कूल, रग्बी स्कूल और ट्रिनिटी कॉलेज में पढ़े थे, उन्होंने बड़े पैमाने पर मीर जाफर द्वारा अर्जित बदनामी का बदला लिया."

फहीम ने आगे बताते हुए कहते हैं कि, 15 अगस्त, 1947 को, रेडक्लिफ अवार्ड ने मुर्शिदाबाद जिले को पाकिस्तान को सौंप दिया गया और यहां के हजारदुआरी पैलेस में पाकिस्तान का झंडा फहराया गया लेकिन दो दिनों के अंदर वासिफ अली मिर्जा के हस्तक्षेप के कारण, दो प्रभुत्वों का आदान-प्रदान हुआ। वहीं, खुलना बांग्लादेश का हिस्सा बन गया और 17 अगस्त, 1947 को मुर्शिदाबाद के भव्य महल में भारतीय ध्वज फहराया गया था.भारतीय सरकार ने 1953 में उनकी सारी संपत्ति उन्हें वापस कर दी. वह हिंदू-मुस्लिम भाईचारे के सबसे बड़े चैंपियन थे. 

छोटे नवाब बताई अपनी इच्छा

बाद में, परिवार के एक सदस्य, इस्कंदर मिर्ज़ा, पाकिस्तान के पहले राष्ट्रपति बने. छोटे नवाब ने कहा, "वह नवाब बहादुर इंस्टीट्यूट गए और फिर आगे की पढ़ाई करने के लिए बॉम्बे गए और बाद में एक सैन्य अधिकारी के रूप में पाकिस्तान चले गए." वह आगे जानकारी देते हैं कि उनका मुर्शिदाबाद वाला घर देखभाल न होने के कारण खंडहर हो गया है. छोटे नवाब बताते है कि वह नहीं चहाते हैं कि उन्हें मीर जाफर के पारिवारिक कब्रिस्तान जाफरगंज कब्रिस्तान में दफनाया जाए. वह कहते हैं कि इससे उन्हें कम गालियां मिलेगी. 

महल के प्रवेश द्वार को दिया यह नाम

लालटन जो कब्रिस्तान का देखभाल करते हैं उन्होंने बताया कि उसकी कब्र पर आने वाले लोग अक्सर घृणा के कारण उस पर थूकते हैं। फिर हम 500 रुपये का जुर्माना लेते हैं और कब्र को धोते हैं और फूल और अगरबत्ती लगाते हैं. बता दें, लालटन को जिला राजकोष से हर महीने 11 रुपये सैलेरी मिलकी है. यह सैलेरी नवाब के दिनों से अब तक नहीं बदली है. वहीं, आज भी जाफरगंज में मीर जाफर के महल के विशाल प्रवेश द्वार को नमक हरम देउरी या गद्दार का द्वार कहा जाता है.