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India Daily

50 Years of Emergency: इलाहाबाद हाई कोर्ट के कमरा संख्या 24 की कहानी, जहां जस्टिस सिन्हा ने लिखा था इंदिरा गांधी का भविष्य

50 Years of Emergency: इमरजेंसी की आज 50वीं बरसी मनाई जा रही है. आज के दिन हम एक बार फिर उस फैसले और फैसला करने वाले भारत के न्यायमूर्ति के बारे में जानेंगे, जिन्होंने बिना डरे अपना फैसला सुनाया. साथ ही यह भी जानेंगे कि कैसे उनके एक फैसले ने इंदिया गांधी के भविष्य को बदल दिया था.

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Edited By: Shanu Sharma
50 Years of Emergency
Courtesy: Social Media

50 Years of Emergency: भारत के लोकतंत्र की मिसाल पुरी दुनिया में दी जाती है. हालांकि इस लोकतंत्र का एक काला अध्याय भी है और इस अध्याय के पूरे हुए आज 50 साल हो गए. इस काले अध्याय में कहानी है आपातकाल की, जिसने देश की इस शान (लोकतंत्र) पर काला धब्बा लगाया था. आज इमरजेंसी की 50वीं बरसी है. 

इमरजेंसी के 50 साल पूरे होने पर आज हम आपको इससे जुड़ी एक खास किस्सा बताने जा रहे हैं. इमरजेंसी के बाद जो कुछ हुआ उस हादसे से पूरी दुनिया वाकिफ है. यह सभी जानते हैं कि सरकार ने कैसे अपनी ताकत का दुरुपयोग कर पूरे देश को एक जेल में तबदील कर दिया था. लेकिन आज हम आपको उससे पहले की कहानी बताएंगे कि कैसे लोकतंत्र के तीसरे स्तंभ न्यायपालिका यानी अदालत के एक फैसले को न मानने की जिद्द ने पूरे देश को गहरी जख्म दे गई. 

जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा का फैसला

इमरजेंसी के पचास साल पूरे होने पर हम बात करेंगे उस जज की जिन्होंने इस साहसिक फैसला देने का हिम्मत किया. हम जानेंगे कि इमरजेंसी लागू होने से पहले इलाहाबाद हाई कोर्ट के कमरा नंबर 24 में क्या हुआ था और न्यायाधीश को एक सही फैसला सुनाने के कारण कितनी परेशानियों का सामना करना पड़ा था. इलाहाबाद हाईकोर्ट ने अपने इस फैसले में पहली बार आजाद भारत में लोकसभा चुनाव को अवैध घोषित किया था.

इस फैसले को हाईकोर्ट के तत्तकालीन जज जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा ने अदालत के कमरा संख्या 24 में सुनाया था. जिसके बाद पूरे देश का दृश्य बदल गया था. आज के समय पर उस कमरे को कोर्ट रूम 34 या न्याय कक्ष कहा जाता है. यह पूरी कहानी राज नारायण द्वारा दायर किए गए मामले से शुरु हुई. जिसमें उन्होंने 1971 में हुए लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की जीत पर सवाल उठाया. उस चुनाव में उन्होंने इंदिरा गांधी के खिलाफ संयुक्त समाजवादी पार्टी के विपक्षी उम्मीदवार के रूप में रायबरेली सीट से चुनाव लड़ा था. 

आखिरी ब्रिटिश जज ब्रूम के पास पहुंचा था मामला 

राज नारायण ने इंदिरा गांधी पर चुनाव में धांधली और सरकार द्वारा मशीनरी के गलत उपयोग का आरोप लगाया. उन्होंने चुनाव में आए परिणाम को अदालत में चुनौती दी. यह मामला जब दर्ज किया गया तो उस समय इस मामले के पहले न्यायमूर्ति विलियम ब्रूम थे. बता दें कि ब्रूम आजाद भारत के आखिरी ब्रिटिश जज थे. हालांकि मामला दर्ज होने के कुछ दिनों बाद ही दिसंबर 1971 में उनका रिटायरमेंट हो गया.

इसके बाद राज नारायण द्वारा दायर की गई याचिका जस्टिस बीएन लोकुर और केएन श्रीवास्तव के सामने पहुंची. लेकिन ये दोनों भी मामले की सुनवाई करते-करते रिटायर हो गए. जिसके बाद 1975 में यह मामला  जस्टिस सिन्हा की बेंच पर आई थी. इस याचिका पर सुनवाई शुरु हुई. दोनों तरफ के गवाहों की रिकॉर्डिंग शुरु हुई. इस दौरान दोनों पक्षों की ओर से कई चर्चित हस्तियों ने गवाही दी. 

राजा नारायण और इंदिरा गांधी के गवाह 

इंदिरा गांधी की ओर से योजना आयोग के उपाध्यक्ष पी.एन हक्सर पहुंचे थें. वहीं राज नारायण की ओर से भारतीय जनसंघ  के कई फेमस चेहरे जैसे लालकृष्ण आडवाणी और बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर ने अपना पक्ष रखा था. इंदिरा गांधी की ओर से एससी खरे बहस कर रहे थें, वहीं राजनारायण की ओर से शांति भूषण और आरसी श्रीवास्तव अदालत में बहस कर रहे थे. दोनों पक्षों ने अपनी बात रखने की पूरी कोशिश की.  मामले की सुनवाई के दौरान इंदिरा गांधी की ओर से उनके बेटे राजीव गांधी और बहू सोनिया गांधी ने भी गवाही दी.

अदालत में काफी गहमागहमी का माहौल था. इसके बाद 17 मार्च 1975 को खुद इंदिरा गांधी गवाही देने के लिए अदालत पहुंची. क्योंकि यह मामला इंदिरा गांधी से जुड़ा था तो सुरक्षा कारणों को देखते हुए कोर्ट रूम नंबर 24 जो दूसरी मंजिल पर स्थित था, उसे चुना गया. बताया जाता है कि आमतौर पर अदालत में गवाही देने के लिए कठघरे में खड़ा होना होता है, लेकिन इंदिरा गांधी को कुर्सी दी गई थी. हालांकि उनके वकील द्वारा अदालत में यह भी अनुरोध किया गया था कि एक आयोग बनाया जाए जो दिल्ली जाकर उनके बयान को दर्ज कर सके लेकिन उनके इस अनुरोध को अस्वीकार कर दिया गया था. इंदिरा गांधी के  बयान देने के बाद भी कुछ दिनों तक बहस चली. इसके बाद अदालत में गर्मी की छुट्टी घोषित कर दी गई थी. 

जस्टिस सिन्हा के बेटे ने क्या कहा?

राज नारायण के वकील रहे शांति भूषण के बेटे प्रशांत भूषण अपनी किताब में लिखते हैं कि इस दौरान जस्टिस सिन्हा और उनके परिवार को काफी दबाव का सामना करना पड़ा. कहा जाता है कि फैसला लिख रहे जस्टिस सिन्हा ने खुद को एक कमरे में बंद कर लिया था और किसे से भी नहीं मिलते थे. मिलने वालों से उनके परिवार झूठ बताते हुए कहते थे कि सिन्हा अपने बड़े भाई से मिलने के लिए उज्जैन गए हैं.

जस्टिस सिन्हा के बेटे, जस्टिस विपिन सिन्हा बतातें हैं कि उस समय मैं 11वीं कक्षा में पढ़ता था. वो समय हमारे पूरे परिवार के लिए काफी मुश्किल था. कई सारे फोन आते थें और गंदी बातें कहते थे, लेकिन हम अपने पिता को कभी भी फोन नहीं उठाने देते थे. 

नहीं बदला फैसला तो लगा इमरजेंसी 

12 जून को कई सारे बहस और दलीलों को सुनने के बाद जस्टिस सिन्हा ने अपना फैसला सुना दिया. फैसले में इंदिरा नेहरू गांधी को लोकसभा के लिए निर्वाचन शून्य घोषित किया गया और अगले 6 साल के लिए उन्हें अयोग्य घोषित किया. इस फैसले ने सबको दंग कर दिया. इंदिरा गांधी के वकील एससी खरे के भतीजे ने फैसले पर स्टे के लिए हाथ से एप्लीकेशन भी लिखा लेकिन जस्टिस सिन्हा ने अपने फैसले पर 20 दिन का स्टे लगा दिया. सबकुछ इतना जल्दी हुआ कि स्टे एप्लीकेशन को टाइप करने तक का समय नहीं था. इसके बाद इंदिरा गांधी सुप्रीम कोर्ट पहुंची, जहां से उन्हें कामकाज जारी रखने की अनुमति तो मिल गई लेकिन उनसे संसद में मतदान का अधिकार वापस ले लिया गया.

सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अगले दिन इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल लागू कर दिया. जो पूरे देश के लोकतंत्र पर काला धब्बा की तरह काम किया. इमरजेंसी लगभग 21 महीने तक चली. इस दौरान सभी विपक्षी नेताओं को और कई पत्रकारों को जेल में बंद कर दिया गया. उन सभी को सजा मिली जिसने भी इंदिरा गांधी के खिलाफ आवाज उठाया. अदालत के आदेश को न मानने की जिद्द ने पूरे देश का रंग बदल दिया. कई परेशानियों को झेलने के बाद भी जस्टिस सिन्हा ने अपने फैसले को नहीं बदला था, जो देश की ताकत को दर्शाता है. 2008 में जस्टिस सिन्हा का निधन हो गया. जस्टिस सिन्हा ने एक इंटरव्यू के दौरान अपने इस खास फैसले को लेकर कहा था कि मेरे लिए यह मामला बाकी अन्य मामलों की तरह ही था. मैंने इसपर वहीं फैसला सुनाया जो सही था और फैसला सुनाने के साथ ही मेरा काम पूरा हो गया.