Massacre of Hyderabad: लोकसभा चुनावों के बीच प्रचार-प्रसार में जुटे नेता अक्सर कुछ न कुछ ऐसे बयान दे देते हैं जो किसी नई चर्चा का आगाज कर देते हैं. हाल ही में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने 15 मार्च को रिलीज हुई फिल्म 'रजाकार' का जिक्र करते हुए हैदराबाद के उस काले इतिहास की याद दिलाई जब प्रदेश में धर्म के नाम पर धड़ल्ले से हिंसा हो रही थी.
केंद्रीय मंत्री अमित शाह ने एआईएमआईएम और उसके अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी की ओर इशारा करते हुए कहा था कि आज भी प्रदेश में रजाकार के प्रतिनिधि बैठे हुए हैं और राज्य को उनसे मुक्ति दिलाने के लिए जनता को एकजुट होना चाहिए.
वहीं शाह के इस बयान पर ओवैसी ने भी पलटवार करते हुए कहा कि हैदराबाद में अब कोई रजाकार नहीं है जो थे वो पाकिस्तान जा चुके हैं, देश भक्त लोग आजादी के बाद से यहीं हैं और आरएसएस की विचारधारा से लड़ रहे हैं.
इस राजनीतिक बहस के बीच लोगों के बीच एक बार फिर से हैदराबाद के उस काले इतिहास पर चर्चा होने लगी है जिसके चलते कुछ ही महीनों में हैदराबाद में रहने वाले 85 फीसदी हिंदुओं की संख्या घटकर 40 फीसदी ही रह गई. आखिर क्या है वो घटना और ओवैसी का रजाकारों से क्या कनेक्शन है, इस बारे में हम आपको जानकारी देते हैं.
हैदराबाद का इतिहास निजाम के शासनकाल के अध्याय को भुला नहीं सकता, जिसमें रजाकारों का आतंक एक काला धब्बा है. रजाकार सेना की बात करें तो इसका गठन 1938 में हुआ था जिसकी नींव मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन के नेता बहादुर यार जंग ने रखी थी और बाद में कासिम रिजवी ने इसे और ज्यादा मजबूत बना दिया. इस सेना में हिंदू और मुसलमान दोनों ही धर्मों के लोग शामिल थे.
यह हैदराबाद के निजाम की प्राइवेट सेना की तरह थी जिसमें करीब 2 लाख सैनिक थे. रजाकार की बात करें तो इसकी स्थापना मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (MIM) नाम की एक कट्टर सांप्रदायिक संस्था ने की थी और दावा किया जाता है कि असदुद्दीन ओवैसी की AIMIM पार्टी को उसकी का बदला हुआ स्वरूप माना जाता है जो कि हैदराबाद के भारत में विलय होने के बाद बचे हुए लोगों के साथ बनाई गई थी.
1947 में भारत के विभाजन के बाद, हैदराबाद के निजाम, उस्मान अली खान, एक स्वतंत्र राज्य बनाना चाहते थे या पाकिस्तान में विलय करना चाहते थे, लेकिन भारत में शामिल होने से इनकार कर दिया. इस दौरान रजाकारों का गठन किया गया, जो मूल रूप से निजाम के निजी सशस्त्र बल थे, जिनमें ज्यादातर मुसलमान शामिल थे. रजाकारों पर आरोप है कि उन्होंने निजाम के स्वतंत्र राज्य के विचारधारा को लागू करने के लिए हिंसा और अत्याचार का सहारा लिया, खासकर हिंदू आबादी के खिलाफ.
इतिहासकारों का मानना है कि रजाकारों की हिंसा सुनियोजित थी. उनका लक्ष्य न केवल हिंदू आबादी को दहलाना था, बल्कि हैदराबाद को एक मुस्लिम-बहुल राष्ट्र के रूप में स्थापित करने की रणनीति का हिस्सा भी था. रजाकारों ने धार्मिक उन्माद फैलाया, मंदिरों को ध्वस्त किया और सार्वजनिक हिंसा का माहौल बनाया.
भैरनपल्ली नरसंहार इस भयावह दौर का एक खौफनाक उदाहरण है. 1948 में तेलंगाना क्षेत्र के इस गाँव में ग्रामीणों ने अपनी जमीनों पर जमींदारों की वापसी का विरोध किया. रजाकारों और पुलिस द्वारा कई बार किए गए हमलों को ग्रामीणों ने नाकाम कर दिया. अंततः निजाम की सेना को तैनात किया गया, जिसने भैरनपल्ली पर हमला कर अंधाधुंध गोलीबारी की और 88 निर्दोष लोगों को मौत के घाट उतार दिया. भैरनपल्ली की घटना सिर्फ एक उदाहरण है, ऐसे कई नरसंहार हुए जिनकी दास्तानें आज भी इतिहास के पन्नों में दफन हैं.
हालांकि, रजाकारों के कृत्यों को लेकर इतिहासकारों में मतभेद हैं. कुछ का मानना है कि यह एक धार्मिक जनसंहार नहीं था, बल्कि जमीनों पर नियंत्रण को लेकर हुआ संघर्ष था. उनका तर्क है कि रजाकारों ने धार्मिक नारों का इस्तेमाल भले ही किया हो, लेकिन उनका असली मकसद धन इकट्ठा करना या जमींदारों को वापस लाना था.
चाहे जो भी हो, इस बहस का सार यह है कि हैदराबाद में उस दौरान एक अशांत वातावरण था, जहां हिंदू आबादी को भय और हिंसा का सामना करना पड़ा. आपको इस विषय पर और अधिक शोध करने और विभिन्न स्रोतों को पढ़ने की सलाह दी जाती है ताकि आप अपना खुद का निष्कर्ष निकाल सकें. साथ ही, यह ध्यान रखना जरूरी है कि इतिहास को तथ्यात्मक रूप से समझना आवश्यक है, ताकि हम भविष्य में ऐसी घटनाओं को दोहराने से बच सकें.