Muslim League Hindu Mahasabha coalition: भारतीय इतिहास में मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा दो ऐसे राजनीतिक दल थे जिनके विचारधाराओं में जमीन-आसमान का अंतर था. मुस्लिम लीग जहां मुसलमानों के लिए एक अलग राष्ट्र की मांग कर रही थी, वहीं हिन्दू महासभा एक हिन्दू राष्ट्र की स्थापना को अपना लक्ष्य मानती थी. लेकिन इतिहास में कुछ विचित्र मोड़ भी आते हैं, और ऐसा ही एक मोड़ 1930 और 40 के दशक में देखने को मिला जब इन दोनों दलों ने कुछ प्रांतों में गठबंधन सरकारें बनाईं.
हाल ही में पीएम मोदी की ओर से शनिवार (6 अप्रैल) को कांग्रेस के घोषणापत्र पर "मुस्लिम लीग की मुहर वाला बयान दिए जाने के बाद छिड़ी राजनीतिक बहस में कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने यह दावा किया है कि भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के "वैचारिक पूर्वजों" ने भारत के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान "अंग्रेजों और मुस्लिम लीग" का समर्थन किया था. उन्होंने यह भी कहा कि श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने 1940 के दशक में बंगाल, सिंध और उत्तर-पश्चिम सीमांत प्रांत (NWFP) में मुस्लिम लीग के साथ गठबंधन सरकारें बनाई थीं.
खड़गे के दावे में सच्चाई का अंश तो जरूर है, लेकिन यह इतिहास की एक जटिल घटना का सरलीकरण है. आइए गहराई से समझने का प्रयास करें. 1935 के भारत सरकार अधिनियम के तहत हुए 1937 के प्रांतीय चुनावों में कांग्रेस ने शानदार प्रदर्शन किया था. उसने कई प्रांतों में सरकारें बनाईं, लेकिन उसे हर जगह बहुमत नहीं मिला. ऐसे में गठबंधन की जरूरत पड़ी.
उस समय भारतीय राजनीति में दो विरोधी विचारधाराएँ उभर रही थीं. एक तरफ मुस्लिम लीग थी, जो मुसलमानों के लिए एक अलग राष्ट्र की मांग कर रही थी. वहीं दूसरी तरफ हिंदू महासभा थी, जो हिंदू राष्ट्रवाद को बढ़ावा दे रही थी. द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान 1939 में कांग्रेस ने यह कहते हुए मंत्रालयों से इस्तीफा दे दिया कि वह युद्ध में ब्रिटिश सरकार का समर्थन नहीं करेगी. इससे प्रांतों में सत्ता का गठजोड़ बदल गया.
1937 के चुनावों में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने कई प्रांतों में जीत हासिल की और सरकारें बनाईं. लेकिन द्वितीय विश्व युद्ध के शुरू होते ही कांग्रेस ने इन सरकारों से इस्तीफा दे दिया क्योंकि वे युद्ध में ब्रिटिश सरकार का समर्थन नहीं करना चाहते थे. कांग्रेस के इस कदम से प्रांतों में सत्ता का गठबंधन अस्थिर हो गया. इसी माहौल का फायदा उठाते हुए मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा दोनों ने सत्ता में आने की कोशिशें शुरू कर दीं.
मुस्लिम बहुसंख्यक सिंध और उत्तर-पश्चिम सीमांत प्रांत (NWFP) में मुस्लिम लीग को बहुमत नहीं मिला. ऐसे में उसने हिन्दू महासभा के साथ मिलकर गठबंधन सरकारें बनाईं. हालांकि, हिन्दू महासभा सार्वजनिक रूप से पाकिस्तान के विचार का विरोध करती थी, लेकिन उसने सरकार में शामिल होना स्वीकार कर लिया.
बंगाल में हालांकि सीधे तौर पर कोई गठबंधन नहीं बना, लेकिन हिन्दू महासभा ने फजलुल हक़ के नेतृत्व वाली कृषक प्रजा पार्टी (KPP) को समर्थन दिया. फजलुल हक़ को भी एक सांप्रदायिक नेता माना जाता था. इस अप्रत्यक्ष समर्थन से बंगाल में भी एक तरह से मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा का परोक्ष गठबंधन बन गया.
हालांकि हिंदू महासभा सार्वजनिक रूप से भारत के विभाजन का विरोध करती थी, लेकिन उसने मुस्लिम लीग के साथ सरकार बनाने में कोई हिचक नहीं दिखाई. कुछ इतिहासकारों का मानना है कि यह महासभा की एक रणनीति थी. उनका कहना है कि महासभा का इरादा मुस्लिम लीग के साथ मिलकर काम करने और विभाजन को रोकने का नहीं, बल्कि हिंदू राष्ट्रवाद को मजबूत करना था. वे कहते हैं कि महासभा को उम्मीद थी कि मुस्लिम लीग के साथ मिलकर सत्ता में आने से हिंदू आबादी को मजबूती मिलेगी.
दूसरी ओर, कुछ इतिहासकारों का मानना है कि मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा के ये गठबंधन अवसरवादी थे. उनका कहना है कि दोनों पार्टियां उस समय कमजोर थीं और उन्होंने सिर्फ सत्ता हासिल करने के लिए हाथ मिला लिया.
मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा के ये गठबंधन ज्यादा समय तक नहीं चल सके. इन गठबंधनों से यह स्पष्ट नहीं हो पाया कि इन दलों का उद्देश्य क्या था. क्या वे मिलकर शासन करना चाहते थे या फिर यह सिर्फ सत्ता हथियाने की एक रणनीतिक चाल थी? इतिहासकारों का मानना है कि ये गठबंधन भारतीय राजनीति में सांप्रदायिकता को बढ़ाने का एक कारक बने. साथ ही, ये गठबंधन इस बात का भी प्रमाण हैं कि राजनीति में कभी-कभी विचारधाराओं से ज्यादा सत्ता हासिल करना महत्वपूर्ण हो जाता है.