कर्नाटक में सत्ता-साझेदारी का ड्रामा एक बार फिर शुरू हो गया है. दिल्ली में पार्टी हाईकमान के इर्द-गिर्द घूम रही चर्चाओं के बीच, उपमुख्यमंत्री D.K. शिवकुमार ने बुधवार को एक रहस्यमय संदेश दिया. उन्होनें कहा कि उनके लिए कुर्सी नहीं, वचन की अहमियत है. उन्होंने जोर देकर कहा, 'शब्द शक्ति विश्व शक्ति है', जो साफ संकेत है कि वे सिर्फ पद की खातिर राजनीति नहीं करना चाहते, बल्कि वादों को सच करना चाहते हैं. इस बयान ने कांग्रेस के अंदर उभरे मतभेदों को और उजागर कर दिया है.
यह संदेश पार्टी के शीर्ष नेताओं के लिए था, जो अपने समर्थकों के अनुसार मई 2023 में सत्ता-साझाकरण समझौते पर पहुंचे थे , जब सिद्धारमैया विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की जीत के बाद इसी तरह के संघर्ष के बाद कुर्सी पर पहुंचे थे.
शिवकुमार ने कहा, 'चाहे वह न्यायाधीश हों, राष्ट्रपति हों या कोई और, जिसमें मैं भी शामिल हूं, सभी को अपनी बात पर चलना होगा. शब्दों की शक्ति ही विश्व शक्ति है. जो लोग पीछे खड़े हैं, उन्हें कुर्सी की कीमत नहीं पता. कुर्सी का क्या मूल्य और महत्व है.'
गौरतलब है कि डीके शिवकुमार खेमे की मानें तो सिद्धारमैया ने सरकार के कार्यकाल के बीच में ही पद छोड़ने की प्रतिबद्धता जताई थी, और यह समय सीमा अब तेजी से नजदीक आ रही है.
'खाली कुर्सी खींचकर बैठने की बजाय, वे खड़े हैं. जबकि सभी वरिष्ठ नेता बैठे हैं, वे बैठने से इनकार करके खड़े हैं. आपको कोई कुर्सी नहीं मिलेगी, आप पीछे रह जाएंगे.' हालांकि, उपमुख्यमंत्री का 'खाली कुर्सी' से क्या तात्पर्य था, यह तुरंत स्पष्ट नहीं हो पाया, क्योंकि सिद्धारमैया ने अपने पद से हटने से इनकार कर दिया है और कहा है कि वह विधानसभा के शेष कार्यकाल के लिए मुख्यमंत्री बने रहेंगे.
शिवकुमार खेमे के सूत्रों के अनुसार, सिद्धारमैया, शिवकुमार, कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे, केसी वेणुगोपाल, रणदीप सुरजेवाला और शिवकुमार के भाई सांसद डीके सुरेश के बीच लंबी चर्चा के बाद 18 मई, 2023 को सत्ता-साझाकरण समझौते पर मुहर लग गई.
शिवकुमार ने पहले 2.5 साल का कार्यकाल मांगा था, लेकिन सिद्धारमैया ने वरिष्ठता का हवाला देते हुए इससे इनकार कर दिया था.
अंततः समझौते के तहत सिद्धारमैया को कार्यकाल का पहला भाग दिया गया, जबकि शिवकुमार को बाद में कार्यभार संभालने का मौका मिला .
अब सबकी निगाहें कांग्रेस आलाकमान पर टिकी हैं . समय सीमा नजदीक आ रही है, दोनों गुटों की ओर से दबाव बढ़ रहा है और विधायक अपनी बात पर अड़े हुए हैं, ऐसे में 2.5 साल के सत्ता-बंटवारे के समझौते पर फैसला यह तय करेगा कि कर्नाटक में सत्ता का सुचारु हस्तांतरण होगा या यह अपने अब तक के सबसे उथल-पुथल भरे दौर में पहुंच जाएगा.