China Plus One Policy: अमेरिका और चीन के बीच लंबे समय से जारी ट्रेड वॉर ने वैश्विक व्यापार समीकरणों को हिला कर रख दिया है. इस संघर्ष को पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के कार्यकाल के दौरान एक नई दिशा मिली, जब उन्होंने चीन पर आयात शुल्क और व्यापारिक पाबंदियां लगाईं. इसके परिणामस्वरूप बड़ी संख्या में अमेरिकी कंपनियां चीन से अपना कारोबार समेट रही हैं.
मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक यूएस-चाइना बिजनेस काउंसिल के एक ताजा सर्वे के अनुसार, 52% अमेरिकी कंपनियों ने कहा है कि वे चीन में नए निवेश की योजना नहीं बना रही हैं. यह आंकड़ा पिछले वर्ष की तुलना में 20 प्रतिशत अधिक है. सर्वे में शामिल 27 प्रतिशत कंपनियां ने यह स्वीकारा कि वे पहले ही चीन से अपने ऑपरेशंस समेट चुकी हैं या समेटने की प्रक्रिया में हैं.
बीते चार वर्षों में चीन से बाहर जाने वाली अमेरिकी कंपनियों की संख्या तीन गुना बढ़ चुकी है. इन कंपनियों ने कभी चीन को एक सस्ते उत्पादन केंद्र के रूप में देखा था, लेकिन कोरोना महामारी के बाद उत्पन्न वैश्विक आपूर्ति संकट, चीन की सख्त व्यापार नीतियां और अमेरिका के साथ लगातार बढ़ते तनाव ने कंपनियों को विकल्प तलाशने पर मजबूर कर दिया है.
‘चाइना प्लस वन’ नीति इस बदलाव का प्रमुख उदाहरण है, जिसके तहत कंपनियां चीन के अलावा अन्य देशों में भी निवेश कर रही हैं. इस नीति का सबसे अधिक लाभ भारत और वियतनाम को मिला है, जहां कंपनियों ने उत्पादन इकाइयां स्थापित करनी शुरू कर दी हैं.
चीन ने हाल के वर्षों में टेक्नोलॉजी और रेयर अर्थ मटेरियल्स के निर्यात पर नियंत्रण बढ़ा दिया है. विश्लेषकों का मानना है कि चीन इन संसाधनों का इस्तेमाल वैश्विक व्यापार पर दबाव बनाने के हथियार के रूप में कर रहा है. इसका सीधा असर वैश्विक सप्लाई चेन पर पड़ रहा है, जिससे पश्चिमी देशों की कंपनियों को रणनीतिक रूप से नए विकल्प तलाशने पड़ रहे हैं.
इस पूरी प्रक्रिया का संकेत है कि वैश्विक व्यापार में अब चीन का एकाधिकार कमजोर हो रहा है. अमेरिका और उसके सहयोगी देश अपने व्यापारिक जोखिमों को कम करने के लिए डायवर्सिफिकेशन की राह पर हैं.