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जवाहर लाल नेहरु, सुभाष चंद्र बोस या मौलाना बरकतुल्लाह? आखिर कौन थे भारत के पहले प्रधानमंत्री

First PM of INDIA: हाल ही में एक इंटरव्यू के दौरान अभिनेत्री कंगना रनौत ने दावा किया था कि सुभाष चंद्र बोस भारत के पहले प्रधानमंत्री थे. उनके इस बयान को लेकर काफी ट्रोलिंग का भी सामना करना पड़ा जिसके बाद कंगना ने एक ट्वीट करते हुए 1943 में बोस की ओर से स्थापित की गई सरकार को अपनी ऐतिहासिक सटीकता के लिए जिम्मेदार ठहराया. पर आखिर ये मामला क्या है समझने की कोशिश करते हैं-

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India Daily Live
Subhas Chandra Bose

First PM of INDIA: अभिनेत्री कंगना रनौत अक्सर अपने बयानों के चलते चर्चा में बनी रहती है और लोकसभा चुनावों में मंडी से उम्मीदवार बनाए जाने के बाद इस मामले में तेजी आई है. कंगना रनौत ने हाल ही में एक इंटरव्यू दिया जहां पर उन्होंने दावा किया कि जवाहर लाल नेहरू भारत के पहले प्रधानमंत्री नहीं थे बल्कि सुभाष चंद्र बोस थे. अब इस बयान को लेकर जब वो ट्रोल हुईं तो उन्होंने एक और ट्वीट किया.

इस ट्वीट में उन्होंने एक न्यूज आर्टिकल का स्क्रीनशॉट शेयर किया और बताया कि क्यों उनका ऐतिहासिक ज्ञान एकदम सही है. इस आर्टिकल में सुभाष चंद्र बोस की ओर से 1943 में स्थापित की गई सरकार का हवाला दिया गया था. अब सवाल ये उठता है कि इस नजरिए से भारत का पहला प्रधानमंत्री किसे माना जाना चाहिए? आइए कंगना रनौत की तरफ से दिए गए ऐतिहासिक संदर्भ के साथ पूरे मामले को समझते हैं कि वो क्या बात कर रही हैं?

तो इस बारें में बात कर रही थी कंगना रनौत

सुभाष चंद्र बोस ने 21 अक्टूबर 1943 को सिंगापुर में "आजाद हिंद" (स्वतंत्र भारत) की अस्थायी सरकार के गठन का ऐलान किया था. बोस इस अस्थायी सरकार के राष्ट्र प्रमुख थे, और विदेश मामलों और युद्ध विभागों का संचालन करते थे. ए सी चटर्जी वित्त विभाग के प्रभारी थे, एस ए अय्यर प्रचार और प्रसार मंत्री बने, और लक्ष्मी स्वामीनाथन को महिला मामलों का मंत्रालय दिया गया. बोस की आजाद हिंद फौज के कई अधिकारियों को भी मंत्रिमंडल पद दिए गए.

सुगत बोस की किताब "His Majesty’s Opponent, 2011" में लिखे उनके भाषण के अनुसार बोस ने कहा, 'ईश्वर के नाम पर, उन बीती पीढ़ियों के नाम पर जिन्होंने भारतीय लोगों को एक राष्ट्र के रूप में जोड़ा है, और उन मृत शहीदों के नाम पर जिन्होंने हमें वीरता और आत्म- बलिदान की परंपरा विरासत में दी है - हम भारतीय लोगों का आह्वान करते हैं कि वे हमारे झंडे के तले एकजुट हों और भारत की आजादी के लिए लड़ें."

कितनी मान्य थी सुभाष चंद्र बोस की सरकार

आजाद हिंद सरकार ने ब्रिटेन की दक्षिण-पूर्व एशियाई उपनिवेशों (मुख्य रूप से बर्मा, सिंगापुर और मलाया) में सभी भारतीय नागरिक और सैन्य कर्मियों पर अधिकार का दावा किया, जो द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जापान के हाथों में आ गए थे. इसने उन सभी भारतीय क्षेत्रों पर संभावित अधिकार का भी दावा किया, जिन्हें जापानी सेनाओं की ओर से कब्जे में लिया गया था और सबको एकजुट करने के बाद बोस की आजाद हिंद फौज ने ब्रिटिश शासित भारत की उत्तर-पूर्वी सीमा पर हमला कर दिया था.

जैसा कि चार्ल्स डे गॉल ने फ्रांसीसी सेना के लिए अटलांटिक में कुछ द्वीपों पर संप्रभुता की घोषणा की थी वैसे ही बोस ने अपनी सरकार को वैधता देने के लिए अंडमान को चुना. सुगत बोस ने लिखा है कि आजाद हिंद सरकार को भारतीय क्षेत्र के एक टुकड़े पर कानूनी नियंत्रण प्राप्त हुआ, जब दिसंबर 1943 के अंत में जापानियों ने अंडमान और निकोबार द्वीपों को सौंप दिया, हालांकि वास्तविक सैन्य नियंत्रण जापानी नौसेना की ओर से नहीं छोड़ा गया था. सरकार ने दक्षिण-पूर्व एशिया में रहने वाले भारतीयों को भी नागरिकता प्रदान की और सुगत बोस के अनुसार केवल मलाया में 30,000 प्रवासियों ने आजाद हिंद फौज के प्रति निष्ठा का संकल्प लिया.

कूटनीतिक स्तर पर इन देशों से मिली मान्यता

सुभाष चंद्र बोस की सरकार को राजनयिक रूप से कुछ देशों और उनके उपनिवेश रहे देशों की तरफ से मान्यता जरूर मिली लेकिन यह मान्यता सिर्फ कूटनीतिक थी और अपना उल्लू सीधा करने के लिहाज से थी. बोस की सरकार को जर्मनी, जापान और इटली के साथ-साथ क्रोएशिया, चीन, थाईलैंड, बर्मा, मंचूरिया और फिलीपींस में नाजी और जापानी द्वीपों की ओर से मान्यता प्राप्त हुई, हालांकि गठन के तुरंत बाद, आजाद हिंद सरकार ने ब्रिटेन और संयुक्त राज्य अमेरिका पर युद्ध का ऐलान कर दिया था.

भारत की पहली अस्थायी सरकार नहीं थी आजाद हिंद फौज

गौर करने वाली बात यह है कि आजाद हिंद सरकार भारत की पहली अस्थायी सरकार नहीं थी. उसके अस्तित्व में आने से 28 साल पहले, भारतीय स्वतंत्रता समिति (आईआईसी) के रूप में मशहूर एक ग्रुप ने काहुल में भारत की अस्थायी सरकार का गठन किया था. जैसे बोस ने द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान अंग्रेजों से लड़ने के लिए धुरी शक्तियों के साथ गठबंधन किया था, वैसे ही प्रथम विश्व युद्ध के दौरान, विदेशों में (ज्यादातर जर्मनी और अमेरिका में) भारतीय राष्ट्रवादी, साथ ही भारत के क्रांतिकारी और पैन-इस्लामवादियों ने सेंट्रल पॉवर्स की सहायता से भारतीय स्वतंत्रता के लिए संघर्ष को आगे बढ़ाने का प्रयास किया. 

आईआईसी ने ओटोमन खलीफा और जर्मनों की मदद से, मुख्य रूप से कश्मीर और ब्रिटिश भारत की उत्तर-पश्चिमी सीमा में मुस्लिम जनजातियों के बीच भारत में विद्रोह को भड़काने की कोशिश की. इसी उद्देश्य को हासिल करने के लिए आईआईसी ने राजा महेन्द्र प्रताप की अध्यक्षता और मौलाना बरकतुल्लाह के प्रधानमंत्रित्व में काबुल में एक निर्वासित सरकार की स्थापना की, जो कि असल में क्रांतिकारी स्वतंत्रता सेनानी थे और दशकों से भारत के बाहर रहकर भारतीय स्वतंत्रता के लिए अंतर्राष्ट्रीय समर्थन जुटाने की कोशिश में लगे हुए थे.

पहले विश्व युद्ध के दौरान बरकतुल्लाह बने थे पीएम

बरकतुल्लाह 1913 में कैलिफोर्निया में शुरू हुए गदर आंदोलन के संस्थापकों में से भी एक थे, जिसका उद्देश्य भारत में ब्रिटिश शासन को उखाड़ फेंकना था. बिपिन चंद्रा और अन्य द्वारा 1988 में "India’s Struggle for Independence" में लिखा गया है कि आंदोलन के नेताओं में से एक लाला हर दयाल ने आंदोलनकारियों के लिए कार्य योजना प्रस्तुत की. हालांकि युद्ध के अंत तक भारत में आंदोलन दबा दिया गया था, गदरियों ने भारतीयों और अंग्रेजों पर एक मजबूत और स्थायी छाप छोड़ी. काबुल की अस्थायी सरकार गदरवादी क्रांतिकारियों द्वारा संचालित कई कदमों में से एक थी.

उन्होंने कहा,'...अमेरिका में मिल रही आजादी का उपयोग अंग्रेजों से लड़ने के लिए करें ... ब्रिटिश शासन को याचिकाओं से नहीं बल्कि सशस्त्र विद्रोह के इस्तेमाल से उखाड़ फेंकना चाहिए ... इस संदेश को जनता और भारतीय सेना के सैनिकों तक पहुंचाएं ... उनका समर्थन प्राप्त करें."

विरोध का पुराना तरीका है निर्वासित सरकार

विदेशी शासन के खिलाफ विद्रोह करने वाले आंदोलनों के लिए, निर्वासित सरकारें स्थापित करना या अस्थायी सरकारें बनाना, सदियों से राजनीतिक वैधता हासिल करने का एक तरीका रहा है. उदाहरण के लिए, धर्मशाला में स्थित केंद्रीय तिब्बती प्रशासन (सीटीए) को लें. निर्वासित सरकार के रूप में इसका उद्देश्य ही चीन के तिब्बत पर कब्जे की वैधता को चुनौती देना है. एक समानांतर सरकार चलाकर, जो यह दावा करती है कि वह तिब्बती लोगों की इच्छा का प्रतिनिधित्व करती है, सीटीए प्रतिरोध की ज्वाला को जलाए रखती है, भले ही तिब्बत में क्रूर दमन और सरकारी प्रायोजित हान प्रवासन ने चीजों को कठिन बना दिया हो.

इसी तरह, 1915 और 1943 की दोनों अस्थायी सरकारें, मुख्य रूप से ब्रिटिश शासन के खिलाफ प्रतिरोध के प्रतीकात्मक कार्य थे, जिन्हें कुछ खास राजनीतिक विचारों को ध्यान में रखकर बनाया गया था.

क्यों मान्य नहीं है बोस-बरकतुल्लाह का प्रधानमंत्रित्व

सुभाष चंद्र बोस ने अंग्रेजों के खिलाफ अपने सशस्त्र संघर्ष को वैधता प्रदान करने के लिए आजाद हिंद सरकार की घोषणा की. अस्थायी सरकार की घोषणा करके, उन्होंने अपनी सेना को अंतरराष्ट्रीय कानून की नजर में वैधता प्रदान की - वे केवल विद्रोही या क्रांतिकारी नहीं थे, बल्कि एक विधिवत गठित सरकार के सैनिक थे. गौरतलब है कि 1945-46 के लाल किला ट्रायल के दौरान आजाद हिंद फौज के अधिकारियों द्वारा ली गई नागरिकता की शपथ को उनके कार्यों की वैधता के सबूत के रूप में पेश किया गया था.

दूसरी ओर, काबुल अस्थायी सरकार की घोषणा आई.एन.सी. के इरादों की गंभीरता स्थापित करने के लिए की गई थी, जिससे अफगान अमीर का समर्थन प्राप्त करने में मदद मिलने की उम्मीद थी. अफगान अमीर उपनिवेशवाद विरोधी क्रांतिकारियों पर कार्रवाई करने के लिए अंग्रेजों के लगातार दबाव का सामना करने के बावजूद तटस्थ रहा. 1917 में, इसने सोवियतों से भी संपर्क किया, और भारत की सीमा पर निर्वासित सरकार के रूप में अंग्रेजों के लिए एक बड़ा खतरा बन गई.

हालांकि, इन दोनों में से किसी को भी वास्तव में भारत सरकार नहीं कहा जा सकता. इसके दो मुख्य कारण हैं. पहला, ये दोनों सरकारें व्यापक अंतर्राष्ट्रीय मान्यता हासिल करने में विफल रहीं. जबकि कुछ देशों ने उन्हें मान्यता दी और उनका समर्थन किया, उन्होंने ऐसा अपने स्वयं के उद्देश्यों के लिए किया. विश्व युद्धों (जिनमें अंग्रेज विजयी हुए) के बाद, यह समर्थन तेजी से गायब हो गया.

दूसरा, इन दोनों सरकारों ने कभी भी भारतीय क्षेत्र पर नियंत्रण नहीं किया. हालाँकि बोस ने आधिकारिक रूप से अंडमान को अपने अधीन कर लिया था, लेकिन प्रभावी रूप से ये द्वीप अभी भी जापानी कब्जे में थे. पूर्वोत्तर में भारतीय और जापानी सेनाओं द्वारा (संक्षेप में) कब्जा कर लिया गया सभी क्षेत्र भी इसी स्थिति में थे. काबुल सरकार 1919 में भंग होने तक कभी भी भारतीय धरती पर पैर नहीं रख सकी और वास्तव में, यह केवल कागजों पर ही सरकार थी.