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क्या सच में Unconstitutional है मोदी सरकार का चुनाव आयुक्त बिल, जानें पूरा संवैधानिक मामला

नई दिल्ली: संसद का मानसून सत्र समाप्त हो गया है जिसकी शुरुआत हंगामे के साथ हुई थी, हालांकि इसके बावजूद केंद्र की मोदी सरकार कई बिलों को पास कराने में कामयाब हो गई.

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Vineet Kumar
क्या सच में Unconstitutional है मोदी सरकार का चुनाव आयुक्त बिल, जानें पूरा संवैधानिक मामला

नई दिल्ली: संसद का मानसून सत्र समाप्त हो गया है जिसकी शुरुआत हंगामे के साथ हुई थी, हालांकि इसके बावजूद केंद्र की मोदी सरकार कई बिलों को पास कराने में कामयाब हो गई. संसद में पास कराये गये कई बिलों में जिस बिल ने सबसे ज्यादा चर्चा बटोरी वो रहा चुनाव आयुक्त बिल जिसे मानसून सत्र की समाप्ति के एक दिन पहले राज्यसभा में पेश किया गया. इसके तहत देश में मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के लिए तीन सदस्यीय पैनल बनाया गया लेकिन इसमें से चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया को बाहर कर दिया गया है.

जानें क्या है मौजूदा चयन प्रक्रिया

मौजूदा चयन प्रक्रिया के अनुसार मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के लिए प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में एक तीन सदस्यीय पैनल बनता है जिसमें विपक्ष के नेता के साथ ही भारत के चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया का शामिल होना तय हुआ था. हालांकि यह चयन प्रक्रिया मार्च 2023 में सुप्रीम कोर्ट की ओर से दिये गये फैसले के बाद लागू हुई थी जिसमें नया कानून बनाये जाने तक इसका पालन करना था. इससे पहले यह नियुक्तियां केंद्र सरकार की सिफारिश पर राष्ट्रपति द्वारा की जाती थी.

नये विधेयक बिल में क्या है बदलाव

मौजूदा विधेयक में सुप्रीम कोर्ट की ओर से दिये गये फैसले की चयन प्रक्रिया का ही पालन किया गया है लेकिन न्यायपालिका का हस्तक्षेप कम करने के लिए सीजेआई की जगह कैबिनेट के एक मंत्री को शामिल करने का प्रावधान दिया गया है. ऐसे में विपक्ष का मानना है कि जब चयन प्रक्रिया में ही मौजूदा सरकार के पीएम और कैबिनेट मंत्री शामिल होंगे तो चयन प्रक्रिया में पक्षपात किया जा सकता है जो कि चुनाव आयोग की प्रासंगिकता को खत्म कर सकता है.

ऐसे में आइये समझते हैं कि क्या ये बिल वाकई असंवैधानिक है या फिर हर बार की तरह सिर्फ विपक्ष का विरोध, आइये इसे नियमों के तहत समझने की कोशिश करते हैं-

आजादी के बाद से क्या रही है चयन की प्रक्रिया

चुनाव आयोग की बात करें तो ये हमेशा ही एक ऐसी संस्था नहीं रही है जिसमें कई सारे सदस्य शामिल हों. 1950 में जब पहली बार चुनाव आयोग बनाया गया तो 15 अक्टूबर 1989 तक इसमें सिर्फ चीफ इलेक्शन ऑफिसर ही हुआ करते थे, हालांकि 16 अक्टूबर 1989 से 1 जनवरी 1990 तक इनकी संख्या दो कर दी गई. इसके बाद इनकी संख्या को 30 सितंबर 1993 तक बढ़ाकर 3 कर दिया गया.

1 अक्टूबर 1993 को कानून में फिर से बदलाव किया गया और पदों की संख्या घटाकर 2 कर दी गई. इसके बाद से ही आयोग में 3 सदस्यीय पद रहे हैं. चुनाव आयोग में राजनीतिक दखल की बात करें तो राजीव गांधी (16 अक्टूबर 1989), वीपी सिंह (2 जनवरी 1990) और पीवी नरसिम्हा (1 अक्टूबर 1993) के कार्यकाल में भी बदलाव देखने को मिले थे. हालांकि 1991 में बनाये गये अध्यादेश के जरिए न सिर्फ इस कानून का नाम बदला गया बल्कि मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्त को बराबरी का दर्जा देकर रिटायरमेंट की उम्र को 65 किया गया.

सुप्रीम कोर्ट के फैसले के तहत ही हुआ है चयन

इस दौरान समझने वाली बात यह है कि चीफ इलेक्शन ऑफिसर और इलेक्शन ऑफिसर के चयन को लेकर पिछले 70 सालों तक कोई भी कानून नहीं रहा है. सुप्रीम कोर्ट के आदेश में भी आर्टिकल 324 (2) के तहत जब तक चीफ इलेक्शन कमिश्नर और इलेक्शन कमिश्नर की नियुक्ति को लेकर नियम नहीं बनता है तब तक सीजेआई की मौजूदगी में इसका चयन होना है. 

कितना संवैधानिक है नया बिल

भले ही विपक्ष मौजूदा बिल को लेकर हंगामा कर रहा है लेकिन मौजूदा बिल को सुप्रीम कोर्ट के आदेशानुसार ही पेश किया गया है. इतना ही नहीं इसकी चयन प्रक्रिया बिल्कुल उसी तरह से है जैसे कि कांग्रेस के कार्यकाल में चीफ इन्फॉर्मेशन ऑफिसर के लिए तय की गई थी. ऐसे में संवैधानिक तरीकों की बात करें तो देश में कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका के कार्यक्षेत्र अलग-अलग हैं और एक-दूसरे के अधिकार क्षेत्र में दूसरे का हस्तक्षेप नहीं होता है.

पक्षपात से बचाता है ये अधिकार

उदाहरण के लिए न्यायपालिका में जजों की नियुक्ति के लिए कॉलेजियम की प्रक्रिया होती है और इसमें विधायिका का कोई दखल नहीं होता है. ऐसे में कार्यपालिका में न्यायपालिका का हस्तक्षेप न होना संवैधानिक प्रक्रिया का ही हिस्सा है. वहीं पक्षपात से बचाने के लिए ज्यूडिशियल इन्क्वॉयरी का अधिकार है, ऐसे में अगर किसी को नियुक्ति से लेकर दिक्कत है तो वो ज्यूडिशियल इन्कवॉयरी के लिए न्यायपालिका की मदद ले सकता है.

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