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चुनावी दौर में फिर याद आई मुस्लिम लीग, PM मोदी ने क्यों छेड़ा जिक्र; कहानी 76 साल पुरानी

लोकसभा चुनाव में अब मुस्लिम लीग की इंट्री हो चुकी है. पीएम मोदी ने कांग्रेस के घोषणा पत्र के सहारे मुस्लिम लीग को देश के बंटवारे के लिए जिम्मेदार ठहराया है. हम आपको आज मुस्लिम लीग की बंटवारे की भूमिका के बारे में बता रहे हैं.

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Pankaj Soni
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Political files : लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान पीएम नरेंद्र मोदी ने एक रैली को संबोधित करते हुए कांग्रेस पर हमला बोला. पीएम मोदी ने कहा कि कांग्रेस के घोषणा पत्र में मुस्लिम लीग की छाप है. साथ ही इसका हर पन्ना देश को तोड़ने वाला है. पीएम मोदी के इशारों- इशारों में मुस्लिम लीग को भारत के बंटवारे के लिए जिम्मेदार ठहराया.

पीएम के इस बयान के बाद से मुस्लिम लीग चर्चा में आ गई है. तो आज हम आपको यह बताने जा रहे हैं कि क्या वाकई में मुस्लिम लीग देश के बंटेवारे के लिए जिम्मेदार है? उस समय देश में किस तरह के हालात थे और भारत का बंटवारा क्यों हुआ इसके बारे में समझने का प्रयास करेंगे. 
 
सारी दुनिया को पता है कि ब्रिटिश सरकार ने 14-15 अगस्त 1947 को भारत को आजाद कर दिया, लेकिन इसके साथ ही गोरों ने भारत के भूगोल को बदलकर रख दिया. परिणाम यह हुआ कि भारत दो हिस्सों में टूट गया और नये इस्लामिक देश पाकिस्तान का जन्म हो गया. भारत के बंटवारे के लिए मुस्लिम लीग को दोषी ठहराया जाता है.

काफी हद तक यह बात सही भी है, लेकिन इसके लिए किसी एक व्यक्ति या संस्था को जिम्मेदार ठहराना नासमझी होगी. इसमें मुस्लिम लीग, हिंदू महासभा, कांग्रेस और ब्रिटिश सरकार, सबकी मिलीजुली भूमिका थी. किसकी कम तो किसकी ज़्यादा. इस मामले में बहस की बहुत गुंजाइश है, लेकिन आज हम बहस में नहीं पड़ेंगे. 

मुस्लिम लीग ने थी अलग देश बनाने की मांग 

यह बात सच है कि मुस्लिम लीग ने अलग देश की मांग की थी और उसकी ये मांग पूरी भी हो गई और धर्म के आधार पर नया देश पाकिस्तान बन गया, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि विभाजन के लिए सारे मुसलमान या फिर केवल मुसलमान ही जिम्मेदार थे. मौलाना आज़ाद और खान अब्दुल गफ़्फ़ार खान विभाजन के सबसे बड़े विरोधी थे. इनके अलावा इमारत-ए-शरिया के मौलाना सज्जाद, मौलाना हाफ़िज़-उर-रहमान, तुफ़ैल अहमद मंगलौरी जैसे कई और लोग थे जिन्होंने बहुत सक्रियता के साथ मुस्लिम लीग की विभाजनकारी राजनीति का विरोध किया था.

इतिहासकार उमा कौरा ने अपनी किताब, मुस्लिम एंड इंडियन नेशनलिज्म में लिखा, विभाजन की रेखा तब गहरी हो गई जब 1929 में मोतीलाल नेहरू कमेटी की सिफ़ारिशों को मामने से हिंदू महासभा ने साफ इनकार कर दिया. इन सिफारिशों में एक महत्वपूर्ण सिफारिश थी कि सेंट्रल असेम्बली में मुसलमानों के लिए 33 प्रतिशत सीटें आरक्षित कर दी जाएं. वहीं दूसरी ओर मोहम्मद अली जिन्ना मुसलमानों के हित की बात को जोर-शोर से उठा रहे थे. इससे जिन्ना की अलग मुल्क का सपना पाले मुसलमानों के बीच पकड़ मजबूत होती गई.

1938 आते-आते जिन्ना मुसलमानों के 'अकेले प्रवक्ता' सबसे बड़े प्रवक्ता बन गए. आम मुसलमान उनकी बातों पर इत्तेफाक रखने लगे. इतिहासकार चारू गुप्ता ने लिखा, इसके उलट दूसरी ओर कांग्रेस के भीतर के हिंदूवादी और हिंदू महासभा के नेता देश में 'भारत माता, मातृभाषा और गौमाता' के आक्रामक नारे बुलंद कर रहे थे. ऐसे में देश में बहुसंख्यक वर्चस्व का माहौल देखकर मुसलमानों का खुद को असुरक्षित समझना स्वाभाविक था.

बंगाल विभाजन ने डाली देश के बंटवारे की नींव

इतिहासकार जोया चटर्जी लिखती हैं 1932 के बाद से देश में हिंदू-मुसलमानों के बीच टकराव बढ़ता गया जिसने चलते देश के विभाजन की भूमिका तैयार होती रही. इसके पहले अंग्रेजों ने 1905 में धर्म के आधार पर बंगाल का विभाजन करके देश के विभाजन की नींव डाल दी थी. वहीं पूना पैक्ट में 'हरिजनों' के लिए असंबली में सीटें आरक्षित कर दी गईं इससे सवर्ण हिंदुओं का वर्चस्व घटने लगा.

इसका नतीजा यह हुआ है कि बंगाल के भद्रजन ब्रिटिश विरोध के बदले, मुसलमान विरोधी रुख़ अपनाने लगे. वहीं उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के बड़े नेताओं, जिनमें पुरुषोत्तम दास टंडन, संपूर्णानंद और गोविंद बल्लभ पंत का झुकाव हिंदूवाद की होने की वजह से मुसलमान अलग-थलग महसूस करने लगे.
 
फ्रांसिस रॉबिनसन और वेंकट धुलिपाला ने लिखा है कि यूपी के खानदानी और रईस मुसलमान समाज में अपनी हैसियत को हमेशा के लिए बनाए रखना चाहते थे. अब उनको लगने लगा था कि हिंदूवादी भारत में उनका पुराना रुतबा कायम नहीं रह पाएगा. वहीं देश के विभाजन में उत्तर प्रदेश के मुसलमानों की सांप्रदायिकता की भूमिका ने बहुत ज्यादा काम किया. 

इतिहासकार पापिया घोष और वनिता दामोदरन ने लिखा है कि 1937 के प्रांतीय चुनाव में कांग्रेस के नेतृत्व में जब सरकार बनी तो हिंदू और मुसलमान, दोनों ओर के सांप्रदायिक तत्वों के बीच सत्ता का बड़ा हिस्सा हथियाने की होड़ लग गई. 1940 के बाद लगातार दोनों में कटुता बढ़ती गई. जब कांग्रेस से जुड़े मुसलमान ख़ुद को अलग-थलग महसूस करने लगे तो जिन्ना की मुस्लिम लीग ने अपनी राजनीति चमकाने के लिए इसका पूरा फायदा उठाया.


अंग्रेजों ने मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा को बढ़ावा दिया

यहां पर गौर करने की बात यह है कि अंग्रेजों ने मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा दोनों को बढ़ावा दिया क्योंकि ये दोनों अंग्रेजों से नहीं लड़ रहे थे, जबकि 1942 में 'भारत छोड़ो आंदोलन' के दौरान लगभग सभी बड़े कांग्रेसी नेताओं को जेल में डाल दिया गया था. ऐसे में लीगी-महासभाई तत्व आजाद घूम रहे थे.

अगर आपको यह लगता है कि मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा के बीच कोई झगड़ा था तो आप गलत हैं. आपको मालूम होना चाहिए कि जब कांग्रेस के नेता जेल में थे तो दोनों ने साथ मिलकर बंगाल, सूबा सरहद और सिंध में मिलकर सरकारें चलाई थी.

इतिहासकार बिपन चंद्रा ने विभाजन के लिए मुसलमानों की सांप्रदायिकता को जिम्मेदार ठहराया है, जबकि कुछ इतिहासकारों ने लिखा कि 1937 के बाद कांग्रेस मुसलमान जनमानस को अपने साथ लेकर चलने में नाकाम रही इसलिए विभाजन हुआ. कई इतिहासकारों का मानना है कि 1946 के बाद जब सांप्रदायिक हिंसा नियंत्रण से बाहर हो गई तो देश के विभाजन के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा था. 

इन सब बातों के अलावा इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि अंग्रेजी हुकूमत ने खासकर लॉर्ड माउंटबेटन और रेडक्लिफ़ ने भारत के बंटवारे को लेकर बहुत जल्दबाजी दिखाई. पहले भारत की आज़ादी के लिए जून 1948 तय किया गया था, माउंटबेटन ने इसे खिसका कर अगस्त 1947 कर दिया जिसके चलते देश में भारी अफ़रा-तफ़री मत गई और लाखों लोगों का कत्ल-ए-आम हुआ. 

कुल मिलाकर, बटवारा आज भी अनसुलझी पहेली बना हुआ है, लोग खोजने का प्रयास करत हैं कि आखिर किसके चलते देश का बंटवारा हुआ. इसके लिए कौन जिम्मेदार है? लेकिन समझने की बात यह है कि इतनी बड़ी घटना के पीछे एक व्यक्ति नहीं बल्कि बहुत सारी शक्तियां काम कर रही थीं.