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Political Files: क्यों एक नहीं हो पाता गांधी परिवार? 42 साल पहले की वह रात बताती है वजह

Political Files: आगामी लोकसभा चुनावों में मोदी सरकार लगातार परिवारवाद को मुद्दा बना रही है जिसको लेकर वो कभी लालू परिवार तो कभी मुलायम परिवार तो कभी देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस पर हमला बोलते हुए नजर आते हैं. हालांकि राजनीति परिवारों से ऊपर है और कई बार देखा गया है परिवार के दो लोग दो अलग-अलग राजनीतिक दलों के लिए अपनी ईमानदारी रखते हैं. आज हम ऐसे ही एक परिवार की बात करने जा रहे हैं जो देश की सबसे पुरानी पार्टी से ताल्लुक रखते हैं.

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Vineet Kumar
Congress Parivar

Political Files: आगामी लोकसभा चुनाव से पहले सभी राजनीतिक दल अपने-अपने उम्मीदवारों के नाम का ऐलान कर रहे हैं तो वहीं पर कई लोग राजनीतिक लाभ को देखते हुए दल-बदल रहे हैं. हाल ही में जब बीजेपी ने यूपी से अपने उम्मीदवारों की लिस्ट जारी की तो उसमें पीलीभीत के मौजूदा सांसद वरुण गांधी का टिकट कट गया है.

वरुण गांधी का टिकट कटने के बाद राजनीतिक गलियारों में अटकलों का बाजार गर्म हो गया और ये कहा जाने लगा कि शायद वरुण गांधी बीजेपी की ओर से दरकिनार किए जाने के बाद देश की सबसे पुरानी और पैतृक पार्टी कांग्रेस में वापसी कर सकते हैं. हालांकि जब इस बारे में उनकी मां मेनका गांधी से पूछा गया तो उन्होंने बीजेपी की तारीफ कर पल्ला झाड़ लिया और कहा कि वरुण गांधी क्या करना चाहते हैं ये उनका निजी मामला है और वो जो भी फैसला करेंगे चुनावों के बाद करेंगे.

एक होने के सवाल पर राहुल ने दिया था दो टूक जवाब

ये तो बात वरुण गांधी के पक्ष की हुई लेकिन जब यही सवाल कांग्रेस नेता राहुल गांधी से पूछा गया तो उन्होंने दो टूक जवाब देते हुए कहा कि मुझे उनसे मिलने में दिक्कत नहीं है और न ही उन्हें गले लगाने में, लेकिन हमारी विचारधारा एक-दूसरे के विपरीत है, ऐसे में मैं किसी ऐसी विचारधारा वाले के साथ काम नहीं कर सकता जो कि आरएसएस के दफ्तर जाता हो.

गांधी परिवार की जब भी बात होती है तो जहन में सोनिया गांधी, राहुल गांधी और प्रियंका गांधी का ही नाम आता है, ऐसे में एक सवाल जरूर उभरता है कि आखिरकार ऐसा क्या हुआ जो गांधी परिवार की छोटी बहू को देश की सबसे पुरानी पार्टी में जगह नहीं मिली. क्यों उन्हें राजनीतिक वनवास लेना पड़ा और क्यों कांग्रेस की विचारधारा के विपरीत बीजेपी को अपना घर बनाना पड़ा.

इतना ही नहीं 40 साल पहले ऐसा क्या हुआ था जिसके चलते मेनका गांधी और उनके परिवार की कांग्रेस में वापसी मुश्किल ही नहीं नामुमकिन नजर आती है.

40 साल पहले हुआ था तनाव का आगाज

रिश्ते में राहुल और वरुण गांधी भले ही भाई हैं लेकिन इसके बावजूद दोनों परिवार एक साथ एक आंगन में नहीं रहते हैं, हालांकि हमेशा से ऐसा नहीं था. 19 जून 1970 को जन्मे राहुल और 13 मार्च 1980 को जन्मे वरुण गांधी करीब 2 साल तक साथ रहे थे लेकिन 28 मार्च 1982 की रात ने सब बदल दिया. तनाव की शुरुआत कहां से हुई ठीक से कहना मुश्किल है लेकिन माना जाता है कि जब दिसंबर 1980 में संजय गांधी की मौत हो गई तो सबकुछ बदल गया.

खुशवंत सिंह ने अपनी आत्मकथा में गांधी परिवार का जिक्र किया है और बताया है कि महज 25 की उम्र में पति को खो देने वाली मेनका गांधी और इंदिरा के बीच सबकुछ ठीक नहीं था, संजय की मौत के बाद परिवार की राजनीतिक विरासत राजीव के हाथों में जा रही थी. तो वहीं इंदिरा और मेनका के बीच तनाव इतना बढ़ गया था कि एक छत के नीचे रह पाना दोनों के लिए मुश्किल हो गया, आखिरकार मेनका गांधी ने 1982 की रात को पीएम आवास छोड़ दिया.

क्या हुआ जो रात को ही घर छोड़कर निकली मेनका गांधी

मेनका गांधी के घर छोड़ने से ज्यादा परेशान करने वाली बात यह थी कि आखिर ऐसा क्या हुआ जो आधी रात को ही मेनका गांधी ने घर छोड़ने का फैसला किया और वरुण गांधी को अपनी गोद में लेकर निकल गई. 28 मार्च 1982 की उस रात के बारे में बात करते हुए स्पेनिश लेखक जेवियर मोरो ने अपनी किताब द रेड सारी में लिखा है कि संजय गांधी के प्लेन क्रैश में गुजर जाने के बाद इंदिरा गांधी अपने छोटे बेटे राजीव गांधी को अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी बनाने के लिए जोर लगा रही थी. 

राजीव गांधी राजनीति में ज्यादा इंटरेस्ट नहीं रखते थे लेकिन भाई के जाने के बाद यह जिम्मेदारी उनके कंधों पर आ गई. हालांकि मेनका गांधी को यह बर्दाश्त नहीं हो रहा था कि कोई संजय गांधी की जगह ले रहा है. वो इस बात को लेकर पिछले कई महीनों में इंदिरा गांधी के सामने अपनी नाराजगी जाहिर कर चुकी थी. इस दौरान तत्कालीन पीएम इंदिरा गांधी विदेश दौरे पर गई थी और तभी मेनका गांधी ने अपने समर्थकों के साथ लखनऊ में एक जनसभा की जो कि इंदिरा को पसंद नहीं आया और पूर्व पीएम के लिए ये लक्ष्मण रेखा पार करना जैसा हुआ.

विदेश से लौटी तो मेनका से नहीं की बात

जेवियर मोरो ने लिखा,'28 मार्च 1982 की सुबह जब इंदिरा लंदन से वापस आई तो उन्होंने मेनका की गुड मॉर्निंग को भी अनसुना कर दिया और कहा कि वो इस बारे में बाद में बात करेंगी. इसके बाद मेनका को उनके कमरे में ही रहने को कहा गया और उनके नौकर ने आकर कमरे में ही लंच दिया. पूछने पर पता चला कि इंदिरा गांधी नहीं चाहती कि वो परिवार के साथ बैठकर लंच करें. एक घंटे बाद नौकर ने आकर मेनका को बुलाया और बताया कि वो उनसे मिलना चाहती हैं.'

किताब में घटना का जिक्र करते हुए लिखा है कि जब गलियारे से मेनका गुजर रही थी तो उनके पांव कांप रहे थे. पिछले कई महीनों से चल रहा तनाव अपने फाइनल स्टेज पर पहुंच चुका था, आज फैसले की घड़ी आ गई थी. जब मेनका कमरे में पहुंची तो वहां पर सिर्फ सन्नाटा मौजूद था, कुछ देर बाद गुस्से से तमतमाते हुए इंदिरा गांधी की एंट्री हुई जिनके साथ धीरेंद्र ब्रह्मचारी और आरके धवन भी मौजूद थे.

इंदिरा के मना करने के बाद भी लखनऊ पहुंची थी मेनका

शायद वो दोनों के बीच होने वाली बातचीत का साक्षी बनने के लिए आए थे. अंदर आते ही इंदिरा ने मेनका को घर से बाहर निकल जाने को कहा, जवाब में मेनका ने पूछा मैंने क्या किया है, आपने ही तो ओके किया था.

गुस्से में लाल हो रही इंदिरा ने इस पर कहा कि कितनी बार तुमको कहा था कि लखनऊ में मत बोलना लेकिन तुमने मनमानी की, इसके बाद तुम्हारी यहां कोई जगह नहीं है, तुरंत निकल जाओ यहां से और अपनी मां के पास जाओ. पहले तो मेनका ने घर छोड़ने से इंकार किया लेकिन जब इंदिरा की सख्ती देखी तो सामान पैक करने के लिए समय मांगा, लेकिन इंदिरा गुस्सा थी और शायद उसके सामने कुछ सुनना नहीं चाह रही थी.

बहन अंबिका को सुनाई सारी कहानी

यही वजह थी कि उन्होंने मेनका को सामान ले जाने की बात पर फिर फटकार दिया और कहा कि तुम्हारे पास बहुत समय था, तुम्हारा सामान भेज दिया जाएगा, तुम अपने साथ यहां से अभी कोई सामान नहीं ले जाआोगी.

इस पूरी घटना से आहत मेनका ने खुद को कमरे में बंद कर लिया और अपनी बहन अंबिका को फोन कर सारी बात बताई और कहा कि जल्दी से आओ. मेनका की बहन अंबिका ने तुरंत अपने फैमिली फ्रेंड और मशहूर पत्रकार खुशवंत सिंह से संपर्क कर सारी बात की जानकारी दी और मीडिया वालों को पीएम आवास पर पहुंचने की गुहार लगाई. रात 9 बजे देश विदेश के पत्रकारों और फोटोग्राफर्स का समूह 1, सफदरजंग रोड स्थित पीएम आवास पर पहुंच गया. पुलिस की टुकड़ियां भी तैनात थी.

मेनका अपनी बहन के साथ अपने कमरे में सामान पैक कर रही थी तभी इंदिरा कमरे में आईं और कहा कि तुम्हे कब निकल जाने को कहा था और कहा था कि साथ में कुछ मत ले जाना. जब अंबिका ने इस बात का विरोध करते हुए कहा कि ये घर संजय की पत्नी मेनका का भी है तो गुस्से में इंदिरा ने कहा कि ये भारत के प्रधानमंत्री का घर है और यहां पर मैं तुम्हें एक मिनट भी बर्दाश्त नहीं कर सकती तो निकल जाओ यहां से.

इंदिरा ये बात कहकर अपने कमरे में चली गई, वहां मौजूद धीरेंद्र बह्मचारी और आर के धवन दोनों पक्षों के बीच लगातार 2 घंटे तक मैसेज लाने ले जाने का काम कर रहे थे. इन सब के बीच मीडिया पीएम आवास के सामने टकटकी लगाए खड़ा था.

द रेड सारी में आगे लिखा है कि जब मेनका घर से बाहर निकल कर अपना सामान गाड़ी में रखवा रखी थी तभी एक बार फिर से बात फंस गई. इस बार मामला संजय गांधी की आखिरी निशानी और इंदिरा के 2 साल के पोते वरुण पर फंसा था, जहां इंदिरा पोते को ले जाने देने के लिए तैयार नहीं थी तो वहीं पर मेनका अपने बेटे को छोड़ कर जाने को तैयार नहीं थी.

इंदिरा ने कानूनी सलाह के लिए प्रिंसिपल सेक्रेटरी पीसी एलेक्जेंडर को बुलाया और उन्होंने समझाया कि बेटे पर मां का ही हक साबित होगा, कानूनी एक्सपर्ट बुलाए गए और सबने इंदिरा को समझाया कि अगर अदालत में मामला जाता है तो फैसला मेनका के पक्ष में आएगा और वरुण की कस्टडी उनकी मां के पास ही जाएगी. आखिरकार इंदिरा अपने पोते वरुण को जाने देने के लिए तैयार हो गई.

जेवियर मारो ने उन पलों को शब्दों में बुनते हुए लिखा कि अधजगे वरुण गांधी को अपनी बांहों में लेकर जब मेनका गांधी बाहर आईं तो राक के 11 बज चुके थे. मीडिया और फोटोग्राफर्स ने उन्हें देखते ही तस्वीरों, सवालों और फ्लैश की झड़ी लगा दी. मेनका कुछ नहीं बोली और अपनी बहन के साथ धीरे से कार में सवार होकर निकल गई. अगली सुबह देश-दुनिया के बड़े अखबरों में ये खबर फ्रंट पेज हेडलाइन बनी हुई थी. 

मेनका ने पीएम आवास छोड़ने के अगले साल ही अकबर अहमद डंपी और संजय गांधी के पुराने साथियों के साथ राष्ट्रीय संजय मंच नाम से पार्टी बना ली. 1984 में वो राजीव गांधी के खिलाफ अमेठी से निर्दलीय चुनाव लड़ा लेकिन उन्हें हार का सामना करना पड़ा जिसके बाद 1988 में उन्होंने जनता दल का दामन थाम लिया.

1989 में वो जनता दल के टिकट से चुनाव लड़ी और लोकसभा पहुंच गई. 1991 में वो पीलीभीत सीट हार गई तो 1996 में वो फिर से जनता दल से चुनाव जीती. 1998 में वो निर्दलीय चुनाव जीती जिसके बाद साल 2004 में उन्होंने बीजेपी का दामन थाम लिया और तब से लगातार जीत हासिल कर संसद पहुंच रही हैं.