देहरादून: उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश की सीमा पर स्थित जौनसार बावर का इलाका अपने अनोखे रीति रिवाजों और सदियों पुरानी परंपराओं के लिए जाना जाता है. यहां के करीब 200 गांवों में इस बार भी बूढ़ी दिवाली का तीन का त्योहार धूमधाम से शुरू हो गया है. कालसी और चकराता ब्लॉक के गांवों में यह त्योहार हर साल दिवाली के लगभग एक महीने बाद मनाया जाता है.
पहाड़ी संस्कृति में इस त्योहार का अपना ही महत्व है. गांवों में देव दर्शन, लोकगीत, नृत्य और मशालों की रोशनी से यह पर्व एक अलौकिक अनुभव बन जाता है.
बूढ़ी दिवाली मनाने की परंपरा भगवान राम के वनवास और रावण वध से जुड़ी मानी जाती है. मान्यता के अनुसार जब भगवान राम रावण का वध कर अयोध्या लौटे थे, तब देशभर में दिवाली मनाई गई थी. लेकिन पहाड़ी इलाकों तक यह खुशखबरी देर से पहुंची. यहां के लोगों को राम के अयोध्या लौटने की सूचना लगभग एक महीने बाद मिली. इसी कारण हिमाचल और उत्तराखंड के कुछ स्थानों में दिवाली अगले महीने मनाई जाने लगी और इसका नाम पड़ गया बूढ़ी दिवाली.
बूढ़ी दिवाली की शुरुआत देव दर्शन के साथ होती है. गुरुवार की सुबह गांवों में लोग चार बजे बीमल की मशालें लेकर बाहर निकलते हैं. नाचते गाते हुए लोग होलियात स्थल तक पहुंचते हैं. वहां सामूहिक रूप से होलियात जलाकर खुशियां मनाई जाती हैं. इस दौरान गांव वाले पारंपरिक गीत गाते हैं. हारुल, सितलू मोडा, कैलेऊ मैशेऊ जैसे लोकगीत माहौल को उत्सव से भर देते हैं. पंचायती आंगन में सामूहिक नृत्य होता है जिसमें महिलाओं और पुरुषों की भागीदारी पूरे समुदाय को जोड़ देती है.
जौनसार के गांवों में इस दिन देव दर्शन की विशेष परंपरा है. लोग अलग अलग देवस्थानों पर जाकर अपनी मनोकामनाएं मांगते हैं. कहीं चुड़ेश्वर महाराज के दर्शन किए जाते हैं. कहीं महासू देवता की पूजा होती है. तो कहीं लोग शिलगुर विजट और भगवान परशुराम के मंदिरों में जाकर परिवार की खुशहाली की कामना करते हैं. बूढ़ी दिवाली सिर्फ एक त्योहार नहीं बल्कि जौनसार बावर की सांस्कृतिक पहचान है. यह पर्व साबित करता है कि आधुनिकता के दौर में भी लोग अपने इतिहास और परंपराओं को दिल से संजोए रखते हैं.