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कुमाऊं की होली है खास, यहां होलिका दहन नहीं चीर बंधन का है महत्व

गांव के हर घर से चीर यानी कपड़ा आता है और इस डंडे पर बांध दिया जाता है, फिर इसकी पूजा की जाती है. गांव का एक व्यक्ति चीर बंधे डंडे की सुरक्षा की जिम्मेदारी लेता है. एकादशी से होली के दिन यानी छरड़ी तक घर-घर में खड़ी होली जलाई जाती है. वहीं चीर से बंधे डंडे को पूरे गांव में घुमाया जाता है और हर घर से चीर पर गुलाल लगाया जाता है.

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Edited By: Sagar Bhardwaj
 tradition of cheer bandhan in Kumaon Holi Holika Dahan Holi 2025

होली पर होलिका दहन को अहम हिस्से के रूप में देखा जाता है. होलिका की पूजा के बाद इस दिन इस दिन मध्य रात्रि में मुहूर्त के अनुसार परिवार के साथ होलिका दहन किया जाता है लेकिन उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल में होली पर होलिका दहन से ज्यादा चीर बंधन का महत्व है. हालांकि कई जगहों पर होलिका दहन देखने को मिलता है लेकिन यहं चीर बंधन की परंपरा अधिक है. कुमाऊं में चीर बंधन का अपना ही एक धार्मिक और ऐतिहासिक महत्व है जिसमें पद्म की डाल पर चीर यानी रंगीन कपड़े बांधे जाते हैं. चीर बंधन के साथ ही कुमाऊं में होली की शुरुआत होती है.

चीर बंधन को लेकर कुमाऊं की परंपराओं और मान्यताओं का विस्तार से वर्णन...

हल्द्वानी निवासी कथावाचक डॉ. प्रमोद जोशी बताते हैं कि कुमाऊं में चीर बांध लंबे समय से किया जा रहा है. यहां के लोग चीर को होलिका का प्रतीक मानते हुए इसकी पूजा करते है. रंग एकादशी के दिन गांव में आंवले के पेड़ से पास एक डंडे से चीर बांधा जाता है. गांव के हर घर से चीर यानी कपड़ा आता है और इस डंडे पर बांध दिया जाता है, फिर इसकी पूजा की जाती है. गांव का एक व्यक्ति चीर बंधे डंडे की सुरक्षा की जिम्मेदारी लेता है. एकादशी से होली के दिन यानी छरड़ी तक घर-घर में खड़ी होली जलाई जाती है. वहीं चीर से बंधे डंडे को पूरे गांव में घुमाया जाता है और हर घर से चीर पर गुलाल लगाया जाता है.

होली के दिन पूजन के बाद चीर को घर-घर में बांट दिया जाता है. लोग चीर को अपने दरवाजे पर बांध देते हैं. मान्यता है कि इससे नाकारात्मक ऊर्जा घर में प्रवेश नहीं कर पाती और रोग, दोष, कष्ट आदि का भी निवारण होता है.

कई जगह जलाने की भी परंपरा
हालांकि, कुमाऊं में कई जगहों पर चीर को पूरे गांव में घुमाने के बाद उसे जलाने की भी परंपरा है. इसके अलावा चीर को मंदिर व सार्वजनिक स्थानों पर भी बांधा जाता है.

कैसे हुई इस परंपरा की शुरुआत
15वीं शताब्दी में कुमाऊं के चंद राजाओं के दरबार में होली मनाने की परंपरा शुरू हुई, इससे पहले होली केवल शहरों में मनाई जाती थी, माना जाता है कि इसी कालखंड में चीर बंधन की भी शुरुआत हुई. जानकार बताते हैं कि पहले हर गांव में चीर बांधने की परंपरा नहीं थी. सामंतों की ओर से चुने गए गांवों को ही चीर दी जाती थी. राजा अपने प्रशंसकों को ही चीर दिया करते थे.

समय के साथ चीर हरण की परंपरा शुरू हुई. जिस गांव में चीर बंधन हीं होता था वहां के लोग दूसरे गांव की चीर लूटकर लाते थे और अगली होली पर उसी गांव में चीर बंधन होता था.

वहीं जिस गांव से चीर लूट ली जाती थी उस गांव में तब तक चीर बंधन नहीं होता था जब तक कोई चीर लूटकर ना ले आए. इसलिए चीर की सुरक्षा गांव के ताकतवर युवक करते थे. हालांकि वर्तमान में चीर हरण परंपरा विलुप्त सी हो गई है और केवल चीर बंधन और होलिका दहन ही किया जाता है.

पद्म से बांधने का मतलब प्रकृति से संबंध
वहीं चीर को पद्म की डालियों से बांधने का अर्ध मनुष्य और प्रकृति के बीच संबंध से है. अलग-अलग रंगों की चीर खुशहाली का प्रतीक हैं. वहीं प्रत्येक घर से चीर का आना लोगों में एकता और भाईचारे का प्रतीक है. चीर को टीके के दिन उतारकर हर एक परिवार को देने की परंपरा है. चीर के साथ साथ कई क्षेत्रों में होली के दिन निशाण पूजने की भी परंपरा है. निशाण किसी राजा या वंशों का चिह्न या झंडा होता है जो उसकी पहचान और क्षेत्र को दर्शाता है.


 

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