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इलेक्टोरल बॉन्ड से पहले राजनीतिक पार्टियां कैसे लेती थी चुनावी चंदा?

Electoral Bond: लोकसभा चुनावों के पहले देश में इलेक्टोरल बॉन्ड को लेकर खूब बवाल हुआ. मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा. सुप्रीम कोर्ट से स्टेट बैंक ऑफ इंडिया को फटकार भी मिली, जिसके बाद पूरा डेटा सामने आया कि किस कंपनी ने कितने रुपये के इलेक्टोरल बॉन्ड कब-कब खरीदे और किस राजनीतिक पार्टी ने कब-कब कितने रुपये के इलेक्टोरल बॉन्ड इनकैश कराए.

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Electoral Bond: इलेक्टोरल बॉन्ड यानी चुनावी चंदे को लेकर चर्चा जारी है. पीएम मोदी ने रविवार शाम को एक टीवी इंटरव्यू में इलेक्टोरल बॉन्ड का न सिर्फ बचाव किया, बल्कि उन्होंने कहा कि जो लोग इसका विरोध कर रहे हैं और जो इसकी आलोचना कर रहे हैं, उन्हें बाद में पछताना पड़ेगा. पीएम मोदी ने कहा कि इस योजना के जरिए चुनावी चंदा देने वाले के बारे में जानकारी मिलती है. उन्होंने सवाल पूछते हुए कहा कि क्या कोई एजेंसी हमें बता सकती है कि 2014 से पहले चुनावों में कितना पैसा खर्च किया गया था? लेकिन ये अब संभव है. ऐसे में एक सवाल ये कि जब देश में इलेक्टोरल बॉन्ड की सुविधा नहीं थी, तब राजनीतिक पार्टियां चुनावी चंदा कैसे लेती थीं?

इस सवाल का सीधा जवाब है. केंद्र की मोदी सरकार जब तक चुनावी बॉन्ड स्कीम को लेकर नहीं आई थी, तब तक राजनीतिक पार्टियां चेक के जरिए चुनावी चंदा लेती थीं. राजनीतिक पार्टियां उस वक्त चुनाव आयोग को डोनर का नाम और डोनेशन की राशि भी बताती थी. लेकिन इसमें एक पेंच ये था कि कई डोनर ऐसे थे, जो चंदे के रूप में बड़ी रकम देने से बचते थे, क्योंकि इसकी जानकारी सार्वजनिक हो जाती थी. इससे भी पहले राजनीतिक पार्टियों के कार्यकर्ता चुनाव में सहयोग राशि के लिए लोगों के घर जाते थे और चंदा लेने के बाद उन्हें इसकी रसीद भी देते थे. 

आखिर इलेक्टोरल बॉन्ड की जरूरत क्यों पड़ी?

केंद्र की मोदी सरकार ने पिछले साल यानी नवंबर 2023 में सुप्रीम कोर्ट को बताया था कि 2004-05 से 2014-15 के बीच यानी 11 साल में राजनीतिक दलों की कुल आय का करीब 70 फीसदी हिस्सा अज्ञात डोनर के जरिए प्राप्त हुआ है. सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने सुप्रीम कोर्ट में  एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स यानी ADR की रिपोर्ट का हवाला दिया था. उन्होंने बताया था कि 2004-05 से 2014-15 के बीच यानी 11 साल में बेनाम डोनर्स से नेशनल स्तर की राजनीतिक पार्टियों को 6612.42 करोड़ जबकि लोकल स्तर की राजनीतिक पार्टियों को 1220.56 करोड़ रुपये चंदा के रूप में मिला. कहा गया कि ये रकम कैश में दिए गए, जो बैंकिंग सिस्टम से बाहर थे. ऐसे में आशंका थी कि राजनीतिक पार्टियां चुनाव में ब्लैक मनी का यूज कर रही हैं.

हालांकि, केंद्र सरकार ने इससे पहले ही 2017 में चुनावी बॉन्ड योजना की जानकारी दी थी. जानकारी देने के दौरान बताया गया कि इसका उद्देश्य राजनीतिक चंदे में पारदर्शिता लाना है. करीब एक साल बाद यानी 2018 में इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम संसद के दोनों सदनों से पास कराया गया और केंद्र सरकार ने 2018 में ही इसे नोटिफाइड कर दिया. फाइनेंस मिनिस्ट्री की ब्रांच डिपार्टमेंट ऑफ इकोनॉमिक अफेयर्स की ओर से जारी प्रेस रिलीज में जानकारी दी गई कि पॉलिटिकल डोनेशन में ब्लैक मनी को रोकने के लिए इस योजना को नोटिफाइड किया है. तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेटली ने कहा था कि इस योजना के जरिए चंदा देने वाले के अकाउंट में इसकी जानकारी होगी कि उसने कितने रुपये के इलेक्टोरल बॉन्ड खरीदे हैं. साथ ही राजनीतिक पार्टियों को भी बताना होगा कि उन्होंने कितने रुपये के इलेक्टोरल बॉन्ड इनकैश कराए हैं. 

अब समझ लीजिए कि इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम आखिर है क्या?

केंद्र सरकार की ओर से लाई गई इस योजना के जरिए कोई भी आम नागरिक, कॉरपोरेट कंपनी और संस्था एसबीआई बैंक से इलेक्टोरल बॉन्ड खरीदकर राजनीतिक पार्टियों को देती है. इसके बाद राजनीतिक पार्टियां इन बॉन्ड्स को इनकैश कराकर अपनी पार्टी के अकाउंट में कैश जमा कराती हैं. केंद्र सरकार की ओर से स्टेट बैंक ऑफ इंडिया यानी SBI को ही इलेक्टोरल बॉन्ड जारी करने और इनकैश करने के लिए अधिकृत किया था. 15 फरवरी 2024 को सुप्रीम कोर्ट ने इस योजना को असंवैधानिक करार दिया था. चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया डीवाई चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली 5 जजों की संविधान पीठ ने SBI को तत्काल प्रभाव से इस योजना को बंद करने का निर्देश दिया था.