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साउथ में पहली बार कब खिसकी कांग्रेस के पैरों तले जमीन, किस्सा 1957 वाला

1957 के आम चुनाव में साउथ के राज्यों ने कांग्रेस को बड़ा झटका दिया. तमिलनाडु में डीएमके कांग्रेस के लिए क्षेत्रीय चुनौती के रूप में उभरी तो पश्चिम में बंबई प्रांत में कांग्रेस की मुश्किलों ने दस्तक दी. आज हम आपको 1957 के आम चुनाव की कहानी बता रहे हैं.

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Edited By: Pankaj Soni
Lok Sabha elections 2024

1957 के आम चुनाव में दक्षिण के राज्य कांग्रेस को बड़ी चुनौती दे रहे थे. दक्षिण में डीएमके कांग्रेस के लिए क्षेत्रीय चुनौती के रूप में पनप रही थी. चुनावी किस्से में आज हम आपको बताते हैं कि देश के एक राज्य में पहली गैर- कांग्रेसी सरकार कैसे बनी थी. साल 1957 के आम चुनाव के नतीजे कांग्रेस के लिए दक्षिण में चुनौतियां लेकर आए. कांग्रेस को चुनौतियां दक्षिण और पूर्वी भारत से मिल रही थी. वहीं पश्चिम से आई खबरों ने भी नेहरू की पार्टी को अलग तरह की चुनौतियों का आभास करवा दिया.

पूरब में उड़ीसा जिसे अब ओडिशा कहते हैं और पश्चिम बंबई प्रांत में कांग्रेस की मुश्किलों ने दस्तक दी तो दक्षिण में तमिलनाडु से केरल ने हवा बदलने का काम किया. उड़ीसा में कांग्रेस को गणतंत्र परिषद से चुनौती मिल रही थी. स्थानीय जमींदारों के समूह ने वामपंथी दलों के साथ मिलकर 20 लोकसभा सीटों वाले राज्य में महज कांग्रेस को केवल 7 सीटों पर समेट दिया.

बंबई प्रांत की 66 सीटों में से कांग्रेस के खाते में 38 सीटें आईं. यहां कांग्रेस को संयुक्त महाराष्ट्र समिति और महागुजरात परिषद जैसी पार्टियों ने नुकसान पहुंचाया. ये दोनों दल अपने-अपने लिए अलग राज्य की मांग कर रहे थे. 

1957 के चुनाव में कांग्रेस के लिए दक्षिण बना बड़ी चुनौती 

इस आम चुनाव में कांग्रेस को सबसे बड़ी चुनौती का सामना दक्षिण में करना पड़ा. पहली चुनौती मद्रास से थी. यहां कांग्रेस के खिलाफ क्षेत्रीय चुनौती पनप रही थी. यह चुनौती द्रविड़ मुनेत्र कड़गम यानी डीएमके के शक्ल में सामने आई थी. ई. वी. रामास्वामी नायकर के द्रविड़ आंदोलन से निकली इस पार्टी का गठन उनके शिष्य रहे सीएन अन्नादुरई ने किया था. 

ई.वी. रामास्वामी की पहचान राजनीति, संस्कृति और धर्मिक क्षेत्र में उत्तर भारतीयों के वर्चस्व के विरोधी के रूप में थी. पेरियार ने दक्षिण भारत में द्रविड़नाडु के नाम से अलग देश की ही मांग कर डाली थी. उनके पूर्व शिष्य सीएन अन्नादुरई ने पेरियार से मतभेद के बाद डीएमके बनाई थी. अन्नादुरई ने संसदीय राजनीति द्वारा पेरियार की अलगाववादी मांग को आगे बढ़ाने की कोशिश की. 1957 में पहली बार यह पार्टी चुनावी मैदान में उतरी.

इस पार्टी को अपने पहले चुनाव में कम सीटें मिलीं, लेकिन पार्टी को मिली सफलता एक बड़ी चिंता की तौर पर उभरी. इसका कारण इस पार्टी की मांग थी. यह पार्टी भाषा और नस्ल के आधार पर अलग राज्य की नहीं बल्कि अलग देश की मांग कर रही थी. हालांकि, 1962 के भारत-चीन युद्ध और राष्ट्रीय राजनीति के बदले परिदृश्य के बीच डीएमके ने स्वतंत्र द्रविड़नाडु की मांग को छोड़ दिया था. यही डीएमके वर्तमान में तमिलनाडु की सत्ता में है. आज तमिलनाडु में सत्ता में रहने वाली बीजेपी पैर नहीं जमा पाई है.   

कांग्रेस को केरल ने दिया था बड़ा झटका 

तमिलनाडु के बाद केरल की बात करें तो 1957 में इस राज्य ने कांग्रेस को तगड़ा झटका दिया. यहां भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी कांग्रेस के सामने एक बड़ी चुनौती के रूप में उभरी. इस पार्टी ने कांग्रेस को राज्य की सत्ता से बाहर कर दिया. आजादी के 10 साल बाद केरल वह पहला राज्य बन गया जहां गैर कांग्रेसी सरकार सत्ता में आई. लोकसभा के साथ कराए गए राज्य विधानसभा चुनाव में लेफ्ट को केरल की 126 में से 60 सीटों पर जीत मिली. पांच निर्दलीय विधायकों के समर्थन से वाम दलों ने बहुमत भी हासिल कर लिया और ईएमएस नंबूदरीपाद देश के पहले गैर कांग्रेसी मुख्यमंत्री बने. 

केरल की 18 में से 9 लोकसभा सीटें भी कम्युनिस्ट पार्टी के खाते में गईं. कांग्रेस को महज 6 सीट ही हाथ लगीं. यह ऐसा मौका था जब कम्युनिस्ट विचाराधारा देश के बड़े राज्य के चुनाव में यह पहली जीती थी. शीतयुद्ध की ओर बढ़ती दुनिया के लिए यह नतीजे कई सवाल भी लेकर आए थे. कई विवादों के बीच केरल की यह गैर कांग्रेसी सरकार अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सकी. महज दो साल बाद ही ईएमएस नंबूदरीपाद सरकार को बर्खास्त कर दिया गया.

1960 में केरल में फिर विधानसभा हुए

1960 में राज्य में फिर विधानसभा चुनाव हुए. इन चुनावों में वाम दलों को बहुत बड़ी हार मिली. कांग्रेस ने इन चुनाव में सोशलिस्ट पार्टी और मुस्लिम लीग से गठबंधन कर लिया. चुनाव के दौरान रिकॉर्ड 84 फीसदी मतदान हुआ. सोशलिस्ट पार्टी और कांग्रेस गठबंधन ने बड़ी जीत दर्ज की. कांग्रेस को 60 सीटें मिलीं तो उसके सहयोगी दलों ने 31 सीट पर जीत दर्ज की. वाम दल महज 26 सीटों पर सिमट गए. नतीजों के बाद एक और दिलचस्प बात हुई. 127 सीट वाले सदन में सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस थी, लेकिन मुख्यमंत्री सोशलिस्ट पार्टी के पीए थनुपिल्लई बने.