बिहार में विधानसभा चुनावों से पहले चुनाव आयोग ने 25 जून को मतदाता सूची का विशेष गहन पुनरीक्षण शुरू किया था. इस प्रक्रिया में 2003 के बाद रजिस्टर्ड हुए सभी मतदाताओं को नागरिकता सहित कई दस्तावेज़ जमा कराने को कहा गया. इस कदम पर सवाल उठाते हुए ADR ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की और कहा कि यह कदम न केवल अनावश्यक रूप से जल्दबाज़ी में उठाया गया है बल्कि इससे लाखों मतदाताओं के नाम सूची से हटाए जा सकते हैं. अब चुनाव आयोग और ADR के बीच कानूनी टकराव अपने निर्णायक मोड़ पर है.
ADR ने अपने जवाबी हलफनामे में सुप्रीम कोर्ट को बताया कि चुनाव आयोग का नागरिकता सत्यापन का दावा पुराने फैसलों के खिलाफ है. 1995 में आए लाल बाबू हुसैन बनाम भारत सरकार और 1985 के इंदरजीत बरुआ बनाम ECI जैसे मामलों में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया था कि मतदाता सूची में नाम होना ही नागरिकता का प्राथमिक प्रमाण है. ऐसे में आयोग का सभी मतदाताओं से नागरिकता के सबूत मांगना न केवल गैरकानूनी है, बल्कि यह पहले से सूची में मौजूद नागरिकों पर नागरिकता का बोझ डालना है.
ADR ने आयोग द्वारा आधार, राशन कार्ड और वोटर आईडी जैसे सामान्य दस्तावेज़ों को खारिज करने पर भी आपत्ति जताई. ADR ने कहा कि जब आधार पासपोर्ट, जाति प्रमाण पत्र और स्थायी निवास जैसे अहम कागज़ात बनवाने के लिए मान्य है, तो उसे मतदाता सूची में नाम साबित करने के लिए अमान्य बताना पूरी तरह से तर्कहीन है. ADR ने EC द्वारा बताए गए 11 दस्तावेजों को भी फर्जीवाड़े की संभावना से अछूता नहीं माना.
ADR ने अपने जवाब में यह भी बताया कि आयोग की गाइडलाइंस के अनुसार हर BLO को घर-घर जाकर दो फॉर्म देने थे, लेकिन जमीनी रिपोर्ट्स के मुताबिक न तो फॉर्म दिए गए, न दस्तावेज़ लिए गए. कुछ मामलों में तो मृत व्यक्तियों के नाम से भी फॉर्म ऑनलाइन जमा कर दिए गए. साथ ही, दस्तावेज़ों की जांच की कोई स्पष्ट प्रक्रिया न होने से ERO अधिकारियों को असीमित और मनमाना अधिकार मिल गया है, जिससे लाखों मतदाता सूची से बाहर हो सकते हैं.
ADR ने EC से पूछा है कि जब जनवरी 2025 में ही मतदाता सूची का संशोधन किया जा चुका है, जिसमें 12.03 लाख नए नाम जोड़े गए और 4.09 लाख हटाए गए, तो अब SIR की इतनी जल्दबाज़ी क्यों? ADR का कहना है कि EC ने यह भी स्पष्ट नहीं किया कि 2003 की सूची को ही आधार क्यों बनाया गया, और न ही उस आदेश की प्रति कोर्ट में रखी. इसके उलट 2004 में नॉर्थ ईस्ट में हुए एक संशोधन में केवल नए वोटरों से दस्तावेज़ मांगे गए थे. बिहार में तीन महीने की छोटी अवधि में पूरे राज्य की सूची दोबारा खंगालना न केवल अव्यवहारिक है, बल्कि बड़े स्तर पर वोटरों को वंचित कर सकता है.