पूर्वी अफगानिस्तान में आए विनाशकारी भूकंप ने न सिर्फ हजारों लोगों की जान ली बल्कि समाज में व्याप्त लैंगिक भेदभाव को भी उजागर कर दिया है. मलबे में दबे पुरुषों और बच्चों को तुरंत बचाया गया, लेकिन महिलाएं परंपरागत नियमों की जंजीरों में जकड़ी रह गईं. यह भयावह तस्वीर बताती है कि तालिबान शासन में महिलाओं को किस तरह मूलभूत अधिकारों और इंसानियत से भी वंचित कर दिया गया है.
भूकंप से प्रभावित कुनार प्रांत के अंदरलुकाक गांव में 19 वर्षीय बीबी आयशा और अन्य महिलाओं ने बताया कि बचावकर्मियों ने उन्हें एक कोने में बैठा दिया और भूल गए. महिलाओं की किसी ने सुध नहीं ली, न ही उनसे यह पूछा गया कि उन्हें किस तरह की मदद चाहिए. वहीं पुरुषों और बच्चों को प्राथमिकता देते हुए तुरंत बाहर निकाला गया. कई महिलाएं खून से लथपथ थीं, फिर भी उन्हें देखना किसी ने जरूरी नहीं समझा.
स्वयंसेवक तहजीबुल्लाह मुहाजिब ने मजार दारा गांव का हाल बयान करते हुए कहा कि ऐसा प्रतीत होता था जैसे महिलाओं को बचाव दल देख ही नहीं पा रहे हों. उन्होंने बताया कि मेडिकल टीम के सदस्य महिलाओं को छूने में हिचकिचा रहे थे. ऐसे में महिलाएं और किशोरियां एक ओर बैठी रहीं और उपचार का इंतजार करती रहीं. मृत महिलाओं को मलबे से खींचकर बाहर लाया गया, लेकिन इस दौरान भी उनके कपड़ों को पकड़कर ही खींचा गया ताकि शरीर से संपर्क न हो.
अफगानिस्तान में चार साल से तालिबान का शासन है और महिलाओं पर कड़े प्रतिबंध लागू हैं. महिलाएं छठी कक्षा से आगे पढ़ नहीं सकतीं, अधिक दूरी की यात्रा पुरुष रिश्तेदार के बिना नहीं कर सकतीं और अधिकांश नौकरियों से वंचित हैं. इस कारण राहत और बचाव कार्यों में भी महिलाओं की भागीदारी न के बराबर रही. महिला कर्मचारी मानवीय संगठनों में काम कर भी रही थीं तो उन्हें लगातार धमकियों का सामना करना पड़ा, जिसकी वजह से कई को घर से काम करना पड़ा.
भूकंप से अब तक 2,200 से अधिक लोगों की मौत हो चुकी है और 3,600 लोग घायल बताए जा रहे हैं. गुरुवार को आए 5.6 तीव्रता के आफ्टरशॉक ने स्थिति को और गंभीर बना दिया. भूकंप प्रभावित इलाकों में राहत कार्य तो जारी है लेकिन महिलाओं की अनदेखी ने त्रासदी को और गहरा कर दिया है. यह तस्वीर साफ करती है कि प्राकृतिक आपदाओं से लड़ने में अफगान समाज की पुरानी परंपराएं और तालिबानी पाबंदियां सबसे बड़ी बाधा बन गई हैं.