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'Haq'...ऐसी कहानी जो हर औरत के दिल को छुएगी, कैसी है यामी गौतम और इमरान हाशमी की फिल्म?

सुपर्ण वर्मा की डायरेक्टेड हक एक शांत लेकिन गहराई से झकझोर देने वाली फिल्म है, जो 1970-80 के दशक की पृष्ठभूमि में एक महिला के साहस, संघर्ष और आत्म-सम्मान की लड़ाई को पेश करती है. इस फिल्म में यामी गौतम और इमरान हाशमी अहम किरदार में है.

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Edited By: Babli Rautela
Haq Movie Review -India Daily
Courtesy: Instagram

मुंबई: हक किसी उग्र भाषण या भारी संवादों पर निर्भर नहीं करती. यह फिल्म सादगी और संवेदनशीलता के बीच इंसानियत की आवाज को उभारती है. शाह बानो केस से प्रेरित यह कहानी शाजिया बानो (यामी गौतम) की है, जो अपने पति अब्बास (इमरान हाशमी) के तीन तलाक देने के बाद अपनी पहचान और न्याय की लड़ाई खुद लड़ती है.

वह अदालत के रास्ते पर चलकर उन आवाजों का प्रतीक बन जाती है, जिन्हें सदियों तक दबाया गया. कहानी न सिर्फ एक महिला के व्यक्तिगत संघर्ष की है, बल्कि एक ऐसे समाज की भी, जो परंपरा और न्याय के बीच फंसा है.

कैसा है हक का डायरेक्शन?

सुपर्ण वर्मा ने इस फिल्म को पूरी संवेदनशीलता के साथ पेश किया है. वह इसे एक कानूनी ड्रामा की तरह नहीं, बल्कि एक भावनात्मक सफर के रूप में गढ़ते हैं. रेशु नाथ की पटकथा उत्तर प्रदेश की मिट्टी की खुशबू लिए हुए है, जो किरदारों को असलियत से जोड़ती है. फिल्म की सिनेमैटोग्राफी हल्के मिट्टी के रंगों में लिपटी है, जो दर्शक को सीधे उस दौर में पहुंचा देती है. विशाल मिश्रा का संगीत बेहद सौम्य है. यह कहानी पर हावी नहीं होता, बल्कि उसे सहारा देता है.

यामी गौतम और इमरान हाशमी की एक्टिंग

यामी गौतम ने हक में अपने अभिनय का एक नया स्तर दिखाया है. उन्होंने शाज़िया को न केवल पीड़िता के रूप में, बल्कि आत्म-सम्मान की प्रतीक के रूप में निभाया है. उनकी खामोशी, उनकी नजरें और दर्द में भी दृढ़ता, सब कुछ बेहद प्रभावशाली है.

इमरान हाशमी भी अपने अब्बास के किरदार में बेहतरीन हैं. उनके भीतर का द्वंद्व, अहंकार और अपराधबोध एक गहरी परत बनाते हैं. यह उनकी उन दुर्लभ भूमिकाओं में से है जहाँ उन्होंने खुद को पूरी तरह किरदार में ढाल दिया है.

सहायक कलाकारों की मजबूत मौजूदगी

दानिश हुसैन अपने गर्मजोशी भरे पिता के किरदार में शानदार हैं. शीबा चड्ढा अपने संयमित वकील के रूप में असर छोड़ती हैं. वर्तिका सिंह की उपस्थिति कहानी में एक दिलचस्प परत जोड़ती है, हालांकि उनके किरदार को और गहराई दी जा सकती थी.

जब कहानी सुप्रीम कोर्ट पहुंचती है, तो फिल्म अपनी भावनात्मक ऊंचाई पर होती है. अदालत के दृश्य तीखे और वास्तविक हैं, लेकिन उनमें नाटकीयता नहीं है. यह इस बात पर केंद्रित है कि कौन जीतता है नहीं, बल्कि कौन बोलने की हिम्मत करता है. अंत में हक विजय का शोर नहीं मचाती, बल्कि एक सच्चाई और गरिमा भरा संदेश छोड़ जाती है, कि आवाज उठाना ही असली जीत है.

रेटिंग: ⭐⭐⭐⭐☆ (4/5)

यह फिल्म हर उस दर्शक के लिए है जो सिनेमा में सिर्फ मनोरंजन नहीं, बल्कि सच्चाई, गरिमा और इंसानियत की तलाश करता है.