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बनारस का वो ऐतिहासिक चर्च जहां ईश्वर से अपनी बोली में होती है बात, महमूरगंज के 'भोजपुरी चर्च' की अनूठी कहानी

महमूरगंज के चर्च का इतिहास बहुत पुराना है. इसकी जड़ें वर्ष 1886 से जुड़ी हैं. उस दौर में, जब औपनिवेशिक प्रभाव के कारण अधिकांश धार्मिक स्थलों पर भाषा का एक खास ढांचा हुआ करता था.

Anuj
Edited By: Anuj
बनारस का वो ऐतिहासिक चर्च जहां ईश्वर से अपनी बोली में होती है बात, महमूरगंज के 'भोजपुरी चर्च' की अनूठी कहानी

वाराणसी: काशी के महमूरगंज इलाके में स्थित यह स्थान न केवल आस्था का केंद्र है, बल्कि यह बनारस की गंगा-जमुनी तहजीब और अपनी मिट्टी के प्रति प्रेम का एक जीवंत उदाहरण है. यहां की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि प्रार्थना का स्वर विदेशी नहीं, बल्कि विशुद्ध भोजपुरी है.

1886 से शुरू हुई ' मातृभाषा भोजपुरी' वाली प्रार्थना

महमूरगंज के इस चर्च का इतिहास बहुत पुराना है. इसकी जड़ें वर्ष 1886 से जुड़ी हैं. उस दौर में, जब औपनिवेशिक प्रभाव के कारण अधिकांश धार्मिक स्थलों पर भाषा का एक खास ढांचा हुआ करता था, तब यहां के लोगों और संस्थापकों ने एक दूरगामी निर्णय लिया. 1886 में शुरू हुई यह परंपरा आज भी उतनी ही मजबूती से कायम है. इसका मुख्य उद्देश्य यही था कि धर्म और प्रार्थना को आम आदमी की पहुँच से दूर न रखा जाए.

आखिर क्यों चुनी गई भोजपुरी?

स्थानीय लोगों का जुड़ाव: महमूरगंज और आसपास के ग्रामीण अंचलों के लोग सरल हृदय वाले और अपनी भाषा से गहरे जुड़े हुए हैं. हर व्यक्ति को अंग्रेजी या संस्कृतनिष्ठ हिंदी की समझ नहीं थी. इसलिए, यह तय किया गया कि प्रार्थना उसी भाषा में हो, जिसे एक किसान, एक मजदूर और एक आम नागरिक अपने घर की रसोई या खेत की मेड़ पर बोलता है.

भाषा नहीं, भाव की प्रधानता: यहां का दर्शन स्पष्ट है- भगवान 'भाव' के भूखे हैं, भाषा के नहीं. प्रार्थना का मतलब केवल शब्दों को दोहराना नहीं, बल्कि परमात्मा से सीधा संवाद करना है. जब कोई भक्त अपनी मातृभाषा में 'हे पिता, हमार रक्षा करा...' कहता है, तो उसका जुड़ाव सीधे अंतर्मन से होता है.

​सबके लिए सुलभ: भाषा की बाधा को हटाकर, इस चर्च ने यह सुनिश्चित किया कि ज्ञान और आध्यात्मिकता किसी खास वर्ग तक सीमित न रहे. यहां साक्षर और निरक्षर, दोनों ही समान रूप से प्रभु की स्तुति में मग्न हो सकते हैं.

सांस्कृतिक समरसता का स्वरूप

आज 135 से भी अधिक वर्षों बाद, जब आप यहां रविवार की प्रार्थना में शामिल होते हैं, तो आपको एक अलग ही दृश्य देखने को मिलता है. यहां हारमोनियम की तान और ढोलक की थाप पर भोजपुरी भजन गाए जाते हैं. लोग अपनी परंपरा के अनुसार जमीन पर बैठकर श्रद्धा के साथ ईश्वर को याद करते हैं. यह दृश्य बताता है कि भक्ति का कोई तय 'लिबास' या 'जुबान' नहीं होती; वह तो बस हृदय का समर्पण है.

​निष्कर्ष: अपनी जड़ों की ओर वापसी

वाराणसी के महमूरगंज का यह भोजपुरी चर्च हमें सिखाता है कि आधुनिकता के शोर में अपनी जड़ों को कैसे संजोकर रखा जाता है. 1886 से चली आ रही यह परंपरा आज भी हमें याद दिलाती है कि ईश्वर हमारी डिग्रियों या व्याकरण को नहीं, बल्कि हमारे निष्कपट भावों को देखता है.

नित्यानंद मिश्रा