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India Daily

भोपाल गैस त्रासदी, टैंक नंबर 610 कैसे बना पूरे शहर के लिए काल? जानिए 2 दिसंबर 1984 की पूरी कहानी

2-3 दिसंबर 1984 की रात भोपाल में यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री के टैंक नंबर 610 से मिथाइल आइसोसाइनेट गैस का रिसाव हुआ, जिसने पूरे शहर को कुछ ही घंटों में मौत की धुंध में बदल दिया.

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Edited By: Reepu Kumari
Bhopal Gas Tragedy 1984
Courtesy: Pinterest

भोपाल: भोपाल गैस त्रासदी भारतीय इतिहास का वह काला अध्याय है, जिसे याद कर आज भी रूह कांप उठती है. 2 दिसंबर 1984 की सर्द रात शहर के लिए ऐसा तूफान लेकर आई, जिसने हजारों परिवारों की जिंदगी हमेशा के लिए बदल दी. कोई नहीं जानता था कि नींद में ही उनकी सांसें थम जाएंगी.

इस हादसे ने न सिर्फ जीवन छीना, बल्कि आने वाली पीढ़ियों को दर्द और विकलांगता की विरासत दे दी. यह त्रासदी आज भी दुनिया के लिए औद्योगिक लापरवाही का सबसे बड़ा सबक है.

कैसे शुरू हुई मौत की वह रात

सर्दी की शांत रात थी और भोपाल गहरी नींद में डूबा था. अचानक यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री के टैंक नंबर 610 में मौजूद मिथाइल आइसोसाइनेट गैस पानी के संपर्क में आकर तेजी से उबलने लगी और भारी मात्रा में जहरीला धुआं हवा में फैलने लगा. कर्मचारियों को शुरू में भी अंदाजा नहीं था कि यह रिसाव कुछ ही समय में पूरे शहर को अपनी चपेट में ले लेगा. कुछ ही मिनटों में यह गैस हवा के साथ शहर की बस्तियों में प्रवेश कर गई.

भोपाल की गलियों में मौत की धुंध

जहरीली गैस जैसे-जैसे नीचे आई, भोपाल की तंग गलियां मौत के साए में डूबने लगीं. लोग घरों में सो रहे थे और अचानक जलन, घुटन और आंखों में तेज दर्द से चीखने लगे. गैस खिड़कियों और दरवाजों से अंदर घुसकर हर कमरे को गैस चैंबर में बदल रही थी. कई लोग समझ ही नहीं पाए कि हुआ क्या है और नींद में ही दम तोड़ बैठे. जो बाहर भागे, वे सड़क पर कुछ कदम चलकर ही गिरने लगे.

अस्पतालों में हाहाकार और टूटती सांसें

शहर भर में अफरा-तफरी मच गई. हजारों की संख्या में लोग अस्पतालों की ओर भागने लगे, लेकिन वहां भी हालात बेकाबू थे. डॉक्टरों के पास न दवाएं थीं, न साधन. मरीजों की सांसें टूटती जा रही थीं और उनका शरीर जवाब दे रहा था. आंखों में जलन इतनी तीखी थी कि कई लोग अंधे हो गए. अस्पतालों के गलियारों में शवों की कतारें लग चुकी थीं और किसी को समझ नहीं आ रहा था कि मौत का यह सैलाब कैसे रोकें.

अगली सुबह का मंजर जिसने दुनिया हिला दी

3 दिसंबर की सुबह जब सूरज निकला, तो पूरी दुनिया चौंक गई. सड़कों पर लाशें पड़ी थीं, पेड़ सूख चुके थे और जानवर भी दम तोड़ चुके थे. अनुमानित 3000 से अधिक लोगों की तत्काल मौत हो गई, जबकि हजारों हमेशा के लिए शारीरिक रूप से कमजोर हो गए. गर्भवती महिलाओं ने ऐसे बच्चों को जन्म दिया जिनमें जन्मजात बीमारियां थीं. यह दृश्य दुनिया को बताने के लिए काफी था कि यह त्रासदी कितनी भयंकर थी.

समाज, पर्यावरण और आने वाली पीढ़ियों पर असर

भोपाल गैस त्रासदी का असर सिर्फ एक रात का नहीं था. पर्यावरण जहरीला हो चुका था और लोगों का पलायन शुरू हो गया. पेड़-पौधे, जल स्रोत और मिट्टी लंबे समय तक प्रदूषित रहे. हादसे ने प्रशासन, स्वास्थ्य सेवा और कानूनी व्यवस्था की सीमाएं उजागर कर दीं. दशकों बाद भी इस त्रासदी के दर्दनाक निशान लोगों की सेहत, यादों और शहर की हवा में महसूस किए जा सकते हैं. यह हादसा अब भी इंसान को चेतावनी देता है कि लापरवाही कितनी बड़ी कीमत ले सकती है.