पिछले वर्ष छत्तीसगढ़ सरकार ने चिकित्सा शिक्षा को हिंदी में उपलब्ध कराने का निर्णय लेकर ग्रामीण और हिंदीभाषी छात्रों को बड़ा विकल्प दिया था. उम्मीद थी कि छात्र अपनी मातृभाषा में मेडिकल पढ़ाई को अपनाएंगे और भाषा की बाधा दूर होगी लेकिन इस वर्ष स्थिति उलट गई. 2025–26 सत्र में हिंदी-माध्यम एमबीबीएस में एक भी दाखिला नहीं हुआ. यह सवाल सामने खड़ा हो गया है कि क्या छात्र खुद ही हिंदी में मेडिकल पढ़ाई से बच रहे हैं, या व्यवस्था में कोई गहरी कमी है.
छत्तीसगढ़ के 14 सरकारी और निजी मेडिकल कॉलेजों में लगभग 2,000 एमबीबीएस सीटें हैं. पिछले सत्र में केवल दो छात्रों ने हिंदी-माध्यम विकल्प चुना था. इस वर्ष यह संख्या बिल्कुल शून्य हो गई. अधिकारियों ने बताया कि मांग न होने के कारण हिंदी कक्षाएं पूरी तरह रोक दी गई हैं.
विशेषज्ञ मानते हैं कि मेडिकल शिक्षा में अंग्रेजी शब्दावली का प्रभुत्व छात्रों की सबसे बड़ी चिंता है. पूर्व आईएमए रायपुर अध्यक्ष डॉ. राकेश गुप्ता ने इसे अव्यावहारिक बताया. उनका कहना है कि सभी मानक मेडिकल किताबें अंग्रेजी में हैं और छात्र अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिस्पर्धी बने रहना चाहते हैं.
दिलचस्प यह है कि एमबीबीएस में प्रवेश लेने वाले लगभग 70% छात्र हिंदीभाषी माहौल से आते हैं, लेकिन वे भी अंग्रेजी पाठ्यक्रम ही चुनते हैं. छात्रों को डर है कि हिंदी माध्यम भविष्य की परीक्षाओं और करियर संभावनाओं को सीमित कर सकता है.
निदेशक चिकित्सा शिक्षा डॉ. यू.एस. पैकरा का कहना है कि सरकार ने हिंदी सामग्री उपलब्ध कराने की जिम्मेदारी निभा दी है. अब यह पूरी तरह छात्र का चुनाव है कि वह किस भाषा में पढ़ना चाहता है. उनका मानना है कि भाषा को बाधा नहीं बनना चाहिए.
इस मुद्दे पर राजनीतिक बयानबाजी भी शुरू हो गई है. कांग्रेस नेताओं ने इसे जल्दबाजी भरा कदम बताया, जबकि भाजपा ने कहा कि हिंदी माध्यम केवल विकल्प था, बाध्यता नहीं. वहीं पड़ोसी मध्य प्रदेश में हिंदी-माध्यम एमबीबीएस को सीमित लेकिन लगातार समर्थन मिल रहा है, हालांकि वहां भी शब्दावली और भविष्य की चुनौतियां समान बनी हुई हैं.