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Bihar Assembly Elections: 5 रणनीतिक गलतियां जिन्होंने बिहार चुनाव में डुबोई महागठबंधन की नैया

बिहार विधानसभा चुनाव के ताजा रुझानों में एनडीए प्रचंड जीत की ओर बढ़ रही है जबकि तेजस्वी यादव कि अगुवाई वाला महागठबंधन बुरी तरह से हारता हुआ नजर आ रह् है.

Sagar
Edited By: Sagar Bhardwaj
Mahagathbandhan
Courtesy: @kcvenugopalmp

बिहार विधानसभा चुनाव 2025 में महागठबंधन करारी हार की तरफ बढ़ती दिख रही है, वहीं एनडीए 203 सीटों पर आगे चलने के साथ प्रचंड बहुमत के साथ सरकार बनाते हुए दिख रही है. बिहार में महागठबंधन के अगवाकर्ता तेजस्वी यादव खुद अपनी सीट हारते नजर आ रहे हैं और पूरा महागठबंधन 34-35 सीटों पर सिमटता नजर आ रहा है. एग्जिट पोल्स ने पहले ही इन चुनावों में महागठबंधन की हार की भविष्यवाणी कर दी थी लेकन इतनी शर्मनाक हार होगी इसके संकेत नहीं थे. 

आइए जानते हैं वे 5 बड़ी गलतियां जिन्होंने महागठबंधन की नैया को डुबो दिया...

1. यादवों पर ज्यादा भरोसा

आरजेडी द्वारा 52 यादव उम्मीदवार उतारने का फैसला पार्टी के पारंपरिक आधार को मजबूत करने की कोशिश था, लेकिन इसका उल्टा असर हुआ. “यादव-फर्स्ट” संदेश ने गैर-यादव और कई ईबीसी समुदायों में पुरानी आशंकाओं को फिर जगा दिया. इससे विरोधियों को “यादव राज की वापसी” वाला नैरेटिव चलाने का मौका मिला. परिणामस्वरूप, व्यापक सामाजिक समर्थन जुटाने की बजाय गठबंधन ने अपना चुनावी दायरा खुद छोटा कर लिया.

2. सहयोगियों की अनदेखी

कांग्रेस और वाम दलों को गठबंधन में शामिल जरूर किया गया, लेकिन रणनीति और प्रचार में उनका योगदान लगभग औपचारिक ही रहा. ‘तेजस्वी का संकल्प’ जैसे कैंपेन ने महागठबंधन को सामूहिक मंच नहीं, बल्कि आरजेडी-केंद्रित ढांचा दिखाया. सीट बंटवारे की तकरार और कमजोर तालमेल ने वोट ट्रांसफर को प्रभावित किया. इसके उलट, एनडीए ने खुद को मजबूत और एकजुट विकल्प के रूप में पेश किया.

3. बड़े वादे, लेकिन ठोस प्लान की कमी

तेजस्वी यादव ने हर घर को नौकरी, नई पेंशन योजना और शराबबंदी की समीक्षा जैसे बड़े वादे किए लेकिन इन वादों के क्रियान्वयन, लागत और समयसीमा पर स्पष्टता नहीं दी गई. बार-बार टाला गया ब्लूप्रिंट जनता में संदेह का कारण बना. आज के जागरूक मतदाता सपनों से ज्यादा विश्वसनीय रोडमैप चाहते हैं. ऐसे में 'ग्रैंड प्रॉमिस, नो स्ट्रैटेजी' वाला दृष्टिकोण भारी पड़ा.

4. प्रो-मुस्लिम नैरेटिव

कई चुनावी भाषणों और विवादों ने यह धारणा मजबूत की कि गठबंधन मुस्लिम वोटों पर अत्यधिक निर्भर है. विपक्ष ने पुराने बयानों और वक्फ बिल विवाद को उछालकर इसे और हवा दी. इससे मध्यवर्ग, गैर-यादव ओबीसी और कई यादव मतदाता भी असहज हुए. विकास की जगह पहचान-आधारित राजनीति हावी होने का डर कई वर्गों में पनपा, जिसने वोट बिखरा दिए.

5. लालू यादव की विरासत से निपटने में असमंजस

तेजस्वी यादव “सामाजिक न्याय” की विरासत और “जंगल राज” की आलोचना इन दोनों के बीच झूलते रहे. पिता की छवि से दूरी बनाना और साथ ही उनका एजेंडा अपनाना विरोधाभासी संदेश बन गया. नरेंद्र मोदी का यह तंज कि “पिता के पाप छिपा रहे हो” इसलिए असरदार साबित हुआ क्योंकि खुद महागठबंधन का प्रेजेन्टेशन अस्पष्ट था. यह भ्रम नेतृत्व की विश्वसनीयता पर भारी पड़ा.