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'मैं बंगाल का ओवैसी हूं..खुद की पार्टी बनाऊंगा...', हुमायूं कबीर ने किया ऐलान; जानें TMC की क्यों बढ़ी चिंता

निलंबित टीएमसी विधायक हुमायूं कबीर ने खुद को 'बंगाल का ओवैसी' बताते हुए नई पार्टी बनाने का ऐलान किया है. उनका दावा है कि वे AIMIM के साथ मिलकर मुस्लिम वोट बैंक में सेंध लगाएंगे और 135 सीटों पर चुनाव लड़ेंगे.

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Km Jaya

कोलकाता: पश्चिम बंगाल की राजनीति में हलचल तब बढ़ गई जब निलंबित टीएमसी विधायक हुमायूं कबीर ने खुद को 'बंगाल का ओवैसी' बताते हुए नई राजनीतिक पार्टी बनाने का ऐलान कर दिया. उन्होंने दावा किया कि वे हैदराबाद के असदुद्दीन ओवैसी की तर्ज पर मुस्लिम समुदाय के लिए एक नया राजनीतिक विकल्प तैयार करेंगे. 

उनका सीधा लक्ष्य टीएमसी के उस बड़े वोट बैंक पर है जो लगभग 27 प्रतिशत मुस्लिम जनसंख्या पर आधारित माना जाता है. हालांकि, राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि ममता बनर्जी के स्थापित जनाधार में सेंध लगाना आसान नहीं होगा. 

हुमायूं कबीर ने क्या कहा?

हुमायूं कबीर ने कहा कि उन्होंने ओवैसी से बातचीत की है. कबीर के अनुसार, ओवैसी ने उन्हें यह कहकर हौसला दिया कि वह हैदराबाद के ओवैसी हैं और कबीर बंगाल के ओवैसी बन सकते हैं. कबीर दावा कर रहे हैं कि वे 22 दिसंबर को लाखों समर्थकों के साथ अपनी पार्टी लॉन्च करेंगे और 10 दिसंबर को कोलकाता में पार्टी की कमेटी का गठन करेंगे.

क्या अपनी पार्टी बना रहे कबीर?

टीएमसी से निलंबन के बाद कबीर लगातार सुर्खियों में बने हुए हैं. बाबरी मस्जिद के शिलान्यास को लेकर दिए गए विवादित बयान के बाद टीएमसी ने उन्हें पार्टी से बाहर किया था. अब कबीर का कहना है कि वे बंगाल विधानसभा चुनाव में 135 सीटों पर उम्मीदवार उतारेंगे. यह वे सीटें हैं जहां मुस्लिम मतदाता निर्णायक भूमिका निभाते हैं. कबीर ने दावा किया कि वे बंगाल चुनाव में गेम चेंजर साबित होंगे और तृणमूल कांग्रेस का पारंपरिक मुस्लिम वोट बैंक खत्म कर देंगे.

क्या टीएमसी के लिए बन सकता है बड़ी चुनौती?

पश्चिम बंगाल में मुस्लिम वोट बैंक लंबे समय से ममता बनर्जी के साथ जुड़ा रहा है. अनुमान है कि राज्य की लगभग 27 से 28 प्रतिशत मुस्लिम आबादी टीएमसी के पक्ष में मतदान करती रही है. ऐसे में यदि हुमायूं कबीर इस वोट बैंक में 5 से 7 प्रतिशत की भी सेंध लगाने में सफल हो जाते हैं तो अगले साल होने वाले चुनावों में यह टीएमसी के लिए बड़ी चुनौती बन सकता है. विश्लेषकों का मानना है कि छोटी-छोटी चुनावी कटौतियां भी बड़े राजनीतिक समीकरणों को बदल सकती हैं.