21 नवंबर को सिनेमाघरों में रिलीज होने जा रही फिल्म '120 बहादुर' देखकर थिएटर से बाहर निकलते वक्त हर दर्शक के सीने में गर्व की लहर दौड़ने की रही है. ये फिल्म सिर्फ़ एक वॉर ड्रामा नहीं, बल्कि 1962 के भारत-चीन युद्ध के उस भूले-बिसरे अध्याय की सच्ची गवाही है, जिसे देश लंबे समय से भूलता चला आया था- रेज़ांग ला की वो रात, जब मात्र 120 अहीर सैनिकों ने 3000 चीनी सैनिकों को रोक दिया था.
फरहान अख्तर ने मेजर शैतान सिंह भाटी का किरदार निभाया है और ये उनका अब तक का सबसे दमदार परफॉर्मेंस है. उनकी आंखों में वो ठंडी आग है जो असली हीरो में होती है- बिना चिल्लाए, बिना डायलॉगबाजी किए, सिर्फ़ मौजूदगी से पूरा स्क्रीन हिला देते हैं. उनके साथ अजिंक्या देओ, एजाज़ खान, विवान भटेना और नए एक्टर स्पर्श वालिया ने भी कमाल का साथ दिया.
डायरेक्टर रजनीश 'रज़ी' घई ने पहली ही फिल्म में साबित कर दिया कि वॉर फिल्म को चीखना-चिल्लाना नहीं, ख़ामोशी से भी सबसे ज़्यादा मार किया जा सकता है. फिल्म में कोई ज़बरदस्ती का देशभक्ति गाना नहीं, कोई फालतू का मेलोड्रामा नहीं. बस साफ-सुथरी कहानी, कड़क स्क्रीनप्ले और वो ठंडी हवा जो लद्दाख की ऊंचाइयों से सीधे दर्शकों के रोंगटे खड़े कर देती है.
फिल्म दिखाती है कि कैसे मेजर शैतान सिंह ने साफ-साफ चेतावनी दी थी कि दुश्मन इसी रास्ते से आएगा, लेकिन ऊपर वाले अफसरों ने बात को नजरअंदाज कर दिया. जब चीनी फौज सचमुच उसी रास्ते से आई तो सेना बैकफुट पर थी. तब मेजर साहब खुद आगे आए और रेज़ांग ला की जिम्मेदारी ली. फिर जो हुआ, वो इतिहास के पन्नों में लिखा गया- 120 सैनिकों ने आखिरी गोली, आखिरी सांस तक लड़ाई लड़ी. सिर्फ़ एक रेडियो ऑपरेटर ही जिंदा बचा, लेकिन उसने जो संदेश भेजा, उसने पूरे युद्ध का रुख बदल दिया.
फिल्म का क्लाइमेक्स देखकर आंखें नम हो जाती हैं, पर सीना चौड़ा भी हो जाता है. ये वो फिल्म है जो स्कूलों में दिखानी चाहिए, ताकि नई पीढ़ी को पता चले कि असली हीरो कौन थे.
लगभग न के बराबर. थोड़ा और बैकग्राउंड म्यूजिक की कमी खल सकती है, लेकिन यही उसकी सादगी भी है. अगर आप इस वीकेंड कुछ ऐसा देखना चाहते हैं जो देखने के बाद कई दिन तक दिल में रहे, तो 120 बहादुर जरूर देखिए.