Allahabad High Court: इलाहाबाद हाई कोर्ट ने फैसला सुनाया है कि हिंदू मैरिज एक्ट के तहत शादी के लिए 'कन्यादान' की आवश्यकता नहीं है. आशुतोष यादव की ओऱ से दायर एक रिवीजन अपील पर सुनवाई करते हुए लखनऊ हाई कोर्ट0 की बेंच ने कहा कि केवल 'सप्तपदी' (संस्कृत में 'सात फेरे') शादी का एक अनिवार्य संस्कार है.
जस्टिस सुभाष विद्यार्थी की सिंगल बेंच हिंदू मैरिज एक्ट, 1955 की धारा 7 (हिंदू विवाह के लिए रस्म) का हवाला देते हुए अपने आदेश में ये टिप्पणी की. दरअसल, याचिकाकर्ता आशुतोष यादव के खिलाफ उनके ससुरालपक्ष की ओऱ से एक मामला दायर कराया गया था. आशुतोष के खिलाफ दायर मामले में 6 मार्च को लखनऊ के एडिशनल सेशन जज की ओर से दिए गए एक आदेश के खिलाफ हाई कोर्ट में याचिका दायर की गई थी.
हाई कोर्ट के जस्टिस सुभाष विद्यार्थी ने कहा कि हिंदू मैरिज एक्ट 'सप्तपदी' को एक आवश्यक समारोह के रूप में प्रदान करता है... 'कन्यादान' का समारोह किया गया था या नहीं, इस मामले में उचित निर्णय के लिए ये आवश्यक नहीं होगा. इसके बाद कोर्ट ने अशुतोष यादव की रिवीजन पिटिशन को खारिज कर दिया.
आशुतोष यादव की ओर से याचिका में कहा गया था कि उनकी शादी में कन्यादान की रस्म पूरी की गकई थी या नहीं, इसकी जांच के लिए कोर्ट में गवाहों की पेशी होनी चाहिए, इस पर कोर्ट ने कहा कि शादी के लिए कन्यादान की रस्म जरूरी नहीं है. कन्यादान जैसी रस्म कोर्ट के किसी भी तरह के फैसले को प्रभावित नहीं करेगा.
हिंदू धर्म में शादी के दौरान एक परंपरा निभाई जाती है, जिसे कन्यादान कहा जाता है. दरअसल, इस रस्म को दुल्हन के माता-पिता निभाते हैं. इसमें दुल्हन के पिता बेटी का हाथ दूल्हे के हाथ में रखते हैं और फिर इसके बाद पंडितों को मौजूदगी में विधि-विधान से मंत्रोच्चारण होता है. इसके बाद, दूल्हा अपनी होने वाली पत्नी की सारी जिम्मेदारियों को निभाने का वचन देता है.