Mysuru Dasara: कर्नाटक की 'नाडा हब्बा' कही जाने वाली मैसूर दशहरा परंपरा का आकर्षण हर साल लोगों को अपनी ओर खींचता है. इस साल भी 11 दिनों तक चले उत्सव ने भव्यता और शाही अंदाज में लोगों को इतिहास और संस्कृति से जोड़ा. राजसी वैभव से सजे अम्बा विलास पैलेस से लेकर पांच किलोमीटर लंबी शोभायात्रा तक, हर दृश्य ने दशहरे की गरिमा और धार्मिक आस्था को जीवंत कर दिया.
गुरुवार दोपहर विजयदशमी के अवसर पर शोभायात्रा की शुरुआत मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने नंदी ध्वज पर विशेष पूजा अर्चना के साथ की. auspicious 'धनुर लग्न' में हुई इस पूजा के बाद पारंपरिक जम्बू सवारी निकाली गई. स्वर्णमंडित 750 किलो के हौदे में विराजमान मां चामुंडेश्वरी की प्रतिमा को हाथी 'अभिमन्यु' ने लेकर शहर भ्रमण किया. इस दौरान पारंपरिक तोपों से 21 गोलों की सलामी दी गई, जिसने माहौल को और भी भव्य बना दिया.
शोभायात्रा में कर्नाटक के विभिन्न जिलों से आए कलाकारों और लोकनृत्य समूहों ने अपनी-अपनी कला प्रस्तुत की. पारंपरिक वाद्ययंत्रों की धुन और रंग-बिरंगे परिधानों में कलाकारों की टोली ने लोगों का मनोरंजन किया. इसके साथ ही सरकारी विभागों की झांकियों ने राज्य की विकास योजनाओं और सामाजिक संदेशों को आकर्षक ढंग से प्रदर्शित किया.
मैसूर के राजघराने के वारिस यदुवीर कृष्णदत्त चामराज वाडियार ने भी शाही अंदाज में इस परंपरा को निभाया. उन्होंने अम्बा विलास पैलेस से भुवनेश्वरी देवी मंदिर तक 'विजय यात्रा' निकाली और शमी वृक्ष की विशेष पूजा की. इस मौके पर 'वज्रमुष्टि कलागा', यानी विशेष कुश्ती मुकाबला भी आयोजित हुआ, जिसमें पारंपरिक योद्धाओं ने अपनी कला का प्रदर्शन किया.
इस शोभायात्रा को देखने के लिए हजारों लोग सुबह से ही मार्ग के किनारे जमा हो गए थे. यह परंपरा उस दौर की याद दिलाती है जब राजा स्वयं स्वर्ण हौदे में बैठकर शोभायात्रा का हिस्सा बनते थे. हालांकि आज राजा की जगह मां चामुंडेश्वरी की प्रतिमा विराजमान होती है, लेकिन उत्सव का शाही वैभव और आध्यात्मिक महत्व पहले जैसा ही बना हुआ है. विजयदशमी की यह परंपरा अच्छाई की बुराई पर जीत और सांस्कृतिक गौरव का प्रतीक मानी जाती है.