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वंदे मातरम् विवाद: राष्ट्रगीत की सिर्फ दो पंक्तियां ही क्यों गाई जाती हैं? 150 साल बाद फिर गरमाया मुद्दा

वंदे मातरम् पर 1937 में शुरू हुआ विवाद आज भी जारी है. मुस्लिम समुदाय की आपत्तियों और राजनीतिक मतभेदों के कारण इसके सिर्फ दो छंद ही गाए जाते हैं और इसे राष्ट्रगीत बनाया गया, राष्ट्रगान नहीं.

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Edited By: Kuldeep Sharma
VANDE MATRAM INDIA DAILY
Courtesy: social media

नई दिल्ली: वंदे मातरम् आज भी देश की भावना और आजादी के संघर्ष का प्रतीक माना जाता है, लेकिन इसके इतिहास में गहरे विवाद भी छिपे हुए हैं. 1937 में शुरू हुआ यह विवाद समय के साथ राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक रूप से इतना बड़ा मुद्दा बन गया कि आज तक इस गीत को लेकर बहस थमी नहीं है. 

संसद में इस पर चर्चा हो रही है, ऐसे में यह समझना जरूरी है कि वंदे मातरम् पर विवाद की नींव कब रखी गई, यह राष्ट्रगान क्यों नहीं बन पाया और केवल दो पंक्तियां ही क्यों गाई जाती हैं.

अक्षय नवमी पर रचा गया था वंदे मातरम्

वंदे मातरम् का जन्म 7 नवंबर 1875 को हुआ, जब बंकिम चंद्र चटर्जी ने इसे अक्षय नवमी पर लिखा. बाद में उन्होंने इसे अपने उपन्यास ‘आनंद मठ’ में शामिल कर पहली बार पाठकों के सामने रखा. 1896 में कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में रवीन्द्रनाथ टैगोर ने इसे गाया और यह पहली सार्वजनिक प्रस्तुति थी. इसके बाद यह गीत स्वतंत्रता आंदोलन का नारा बन गया और देशभर में ब्रिटिश शासन के खिलाफ जोश भरने लगा.

कहां से शुरू हुआ विवाद

विवाद की जड़ 1905 के बंगाल विभाजन आंदोलन से जुड़ी है. इस समय वंदे मातरम् आंदोलन का मुख्य नारा बन गया था. लेकिन मुस्लिम लीग ने इसमें ‘दुर्गा’ और ‘मंदिर’ जैसे शब्दों पर आपत्ति जताई. उनका कहना था कि यह गीत उन्हें हिंदू धार्मिक प्रतीकों को मानने के लिए बाध्य करता है. 1923 में भी कांग्रेस के अधिवेशन में वंदे मातरम् गाए जाने पर अध्यक्ष मोहम्मद अली जौहर विरोध में उठकर चले गए थे.

कमेटी बनी तो क्या निकला हल

विवाद बढ़ने पर सुभाष चंद्र बोस, मौलाना आजाद और आचार्य नरेंद्र देव की एक कमेटी बनाई गई. कमेटी ने सुझाव दिया कि गीत के विवादित हिस्से नहीं गाए जाएं और केवल वे दो छंद पढ़े जाएं, जिनमें धार्मिक प्रतीक नहीं हैं. महात्मा गांधी ने इस प्रस्ताव का समर्थन किया और कांग्रेस से इसे स्वीकार करने का आग्रह किया. इसका उद्देश्य हिन्दू-मुस्लिम एकता को बचाना था जो आंदोलन की सबसे बड़ी ताकत थी.

1937 का ऐतिहासिक फैसला

1937 में फैजपुर में हुए कांग्रेस अधिवेशन में जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में यह बड़ा फैसला लिया गया कि वंदे मातरम् के केवल पहले दो छंद ही गाए जाएंगे. यह घोषणा आगे स्थायी आधार बनी. बाद में 24 जनवरी 1950 को संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने इसे राष्ट्रगीत घोषित किया और दो छंदों तक सीमित रखने के निर्णय को आधिकारिक रूप से मान्यता दी.

राष्ट्रगान क्यों नहीं बन पाया

हालांकि वंदे मातरम् की लोकप्रियता असाधारण थी, लेकिन उसे राष्ट्रगान बनाने में सबसे बड़ी बाधा मुसलमानों का विरोध था. मौलाना अबुल कलाम आजाद का मत था कि धार्मिक प्रतीकों के कारण यह राष्ट्रगान नहीं बन सकता. इसके उलट, तिलक और अरविंदो घोष इसे राष्ट्रगान बनाने के पक्ष में थे. लेकिन धार्मिक विभाजन के खतरे को देखते हुए जन गण मन को राष्ट्रगान और वंदे मातरम् को राष्ट्रगीत का दर्जा दिया गया.

दो लाइनों का मतलब क्या है

वंदे मातरम् का अर्थ है- ‘मां, मैं तुम्हें प्रणाम करता हूं.’ गीत के पहले दो छंद भारत माता की प्रकृति, सौंदर्य और सम्पन्नता को समर्पित हैं. 'सुजलाम् सुफलाम्, मलयज शीतलाम्' का आशय है- जल से भरा, फलों से समृद्ध और ठंडी हवा से सराबोर राष्ट्र. 'शस्य श्यामलाम् मातरम्' यानी फसलों से लहलहाता देश. इन दो छंदों में किसी धार्मिक प्रतीक का उल्लेख नहीं, इसलिए इन्हें ही गाने की परंपरा बनाई गई.

फिर आज क्यों छिड़ी बहस?

यूपी में स्कूलों के लिए गायन अनिवार्य होने के बाद मुस्लिम संगठनों ने विरोध जताया. प्रधानमंत्री मोदी ने भी 7 नवंबर 2025 को इसके 150 साल पर हुए विवाद का जिक्र किया, जिसके बाद संसद में इस विषय पर चर्चा तय हुई. यह दर्शाता है कि वंदे मातरम् आज भी राष्ट्रीय पहचान का महत्वपूर्ण हिस्सा है, लेकिन इसके ऐतिहासिक विवाद को समझना भी उतना ही जरूरी है.