नई दिल्ली: एक समय था जब चीन की राजधानी बीजिंग दुनिया के सबसे प्रदूषित शहरों में से एक के रूप में जानी जाती थी. कई दिनों तक शहर घने स्मॉग से ढका रहता था, लोग नियमित रूप से मास्क पहनते थे और अंतर्राष्ट्रीय मीडिया इसे 'दुनिया की स्मॉग कैपिटल' कहता था. लेकिन आज, बीजिंग की हवा कहीं ज्यादा साफ है और यह बड़ा बदलाव सिर्फ पिछले 10 सालों में हुआ है.
दूसरी ओर भारत की राजधानी दिल्ली कई कोशिशों के बावजूद गंभीर वायु प्रदूषण से जूझ रही है. विशेषज्ञ अब मानते हैं कि दिल्ली अकेले इस समस्या को हल नहीं कर सकती. आस-पास के राज्यों को भी मिलकर काम करना होगा, क्योंकि वायु प्रदूषण सीमाओं तक सीमित नहीं है. बड़ा सवाल यह है दिल्ली बीजिंग से क्या सीख सकती है?
चीन को कभी 'साइकिल किंगडम' के नाम से जाना जाता था. दशकों तक, साइकिलें परिवहन का सबसे आम साधन थीं. असल में, एक साइकिल, एक कलाई घड़ी और एक सिलाई मशीन को चीनी घरों में सबसे कीमती घरेलू सामान माना जाता था. लेकिन जैसे-जैसे चीन ने तेजी से आधुनिकीकरण किया, वह साइकिल से कंबशन इंजन वाली गाड़ियों की ओर बढ़ गया. इस बदलाव से आर्थिक विकास हुआ, लेकिन इसने गंभीर पर्यावरणीय, सामाजिक और स्वास्थ्य समस्याएं भी पैदा कीं.
इसका असर बीजिंग में सबसे ज्यादा महसूस किया गया. गाड़ियों की संख्या तेजी से बढ़ी, उद्योग बढ़े और कोयले की खपत ज्यादा रही. नतीजतन, बीजिंग की हवा की गुणवत्ता तेजी से खराब हुई, जिससे चीन की वैश्विक छवि को नुकसान पहुंचा. देश और विदेश में बढ़ते दबाव का सामना करते हुए, चीन ने सख्त और कभी-कभी मुश्किल फैसले लेने का फैसला किया. ऐसे फैसले जो बाद में गेम चेंजर साबित हुए.
तेजी से बढ़ती आबादी, बढ़ती आय और गाड़ियों की संख्या में भारी वृद्धि ने बीजिंग के इकोसिस्टम पर बहुत ज्यादा दबाव डाला. साफ हवा में सांस लेना रोजाना की जद्दोजहद बन गया. हालांकि, कार्रवाई में देरी करने के बजाय चीन ने आक्रामक तरीके से जवाब दिया.
2013 में, चीनी सरकार ने आधिकारिक तौर पर प्रदूषण के खिलाफ युद्ध की घोषणा की. यह एक महत्वपूर्ण मोड़ था. नीतियों को सिर्फ कागज पर घोषित नहीं किया गया, बल्कि सख्ती से लागू किया गया. तब से, बीजिंग उन शहरों के लिए एक वैश्विक उदाहरण बन गया है खासकर दक्षिण एशिया में जो इसी तरह के प्रदूषण स्तरों से जूझ रहे हैं.
चीन आज दुनिया का सबसे बड़ा ऑटोमोबाइल उत्पादक और उपभोक्ता है. साथ ही, उसे एहसास हुआ कि बढ़ता फ्यूल कंजम्पशन और कोयले का इस्तेमाल लंबे समय तक नुकसान पहुंचा रहा है. रिपोर्ट्स के मुताबिक, 2013 से बीजिंग ने फाइन पार्टिकुलेट मैटर (PM2.5) प्रदूषण को लगभग 64% और सल्फर डाइऑक्साइड (SO2) के लेवल को लगभग 89% कम किया है. चीन के दूसरे शहरों ने भी इसी मॉडल को फॉलो किया है. चलिए जानते हैं प्रदूषण से लड़ने के लिए बीजिंग द्वारा उठाए गए मुख्य कदम
बीजिंग ने 2005 की शुरुआत में ही कोयले की जगह क्लीन एनर्जी सोर्स का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया था. 2017 तक, कोयले की खपत में लगभग 11 मिलियन टन की कमी आई थी. कम कोयले का मतलब था कम धुआं, कम जहरीली गैसें और साफ हवा. दिल्ली और NCR के लिए, आस-पास के इंडस्ट्रियल इलाकों में कोयले का इस्तेमाल कम करना बहुत जरूरी है.
पुरानी और बहुत ज्यादा प्रदूषण फैलाने वाली गाड़ियों को सड़कों से हटा दिया गया. नए एमिशन स्टैंडर्ड को सख्ती से लागू किया गया, न कि कई देशों की तरह ढीले-ढाले तरीके से.
चीन ने इलेक्ट्रिक बसों, टैक्सियों और प्राइवेट EVs में भारी निवेश किया. फाइनेंशियल इंसेंटिव्स ने आम लोगों के लिए क्लीन गाड़ियों को किफायती बनाया.
प्रदूषण फैलाने वाली इंडस्ट्रीज को या तो क्लीन टेक्नोलॉजी के साथ अपग्रेड किया गया या घनी आबादी वाले इलाकों से दूर ले जाया गया.
बीजिंग ने रेगुलेशन, टेक्नोलॉजी और किसानों को मुआवजे के जरिए खेती से होने वाले प्रदूषण से निपटा यह एक ऐसा मुद्दा है जिससे दिल्ली अभी भी जूझ रही है.
स्मार्ट सिस्टम का इस्तेमाल करके ट्रैफिक जाम को कम किया गया और लोगों को आर्थिक फायदों के ज़रिए पब्लिक ट्रांसपोर्ट इस्तेमाल करने के लिए प्रोत्साहित किया गया.
बीजिंग की सफलता यह साबित करती है कि हवा को साफ करना कोई रॉकेट साइंस नहीं है इसके लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति, सख्त लागू करना, क्षेत्रीय सहयोग और लंबी अवधि की प्लानिंग की जरूरत है. अगर दिल्ली और आस-पास के राज्य उसी गंभीरता के साथ मिलकर काम करते हैं, तो राजधानी एक बार फिर आजादी से सांस ले पाएगी.