क्या न्यायपालिका राष्ट्रपति और राज्यपालों के लिए विधेयकों पर हस्ताक्षर करने की एक निश्चित समय सीमा तय कर सकती है? इस मामले पर 10 दिनों तक चली सुनवाई के बाद सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला सुरक्षित रख लिया.
दरअसल, इस विवाद की जड़ें केरल और तमिलनाडु जैसे विपक्षी शासित राज्यों से जुड़ी हुई हैं. दोनों राज्यों ने राज्यपालों द्वारा विधेयकों को कथित तौर पर अनिश्चित काल तक रोके जाने पर चिंता व्यक्त की थी. उनका तर्क था कि यह कदम संघीय शासन और विधायी मंशा को बाधित करता है.
मामले की सुनवाई चीफ जस्टिस बीआर गवई की अध्यक्षता वाली संवैधानिक बैंच ने की जिसमें जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस विक्रम नाथ, जस्टिस पीएस नरसिम्हा और जस्टिस एएस चंदुरकर शामिल थे. 10 दिनों की गहन सुनवाई के बाद पीठ ने सुनवाई पूरी की और राष्ट्रपति मुर्मू द्वारा संविधान के अनुच्छेद 143 (1) के तहत प्रस्तुत संदर्भ पर अपनी राय सुरक्षित रख ली.
केरल और तमिलनाडु ने क्यों किया राष्ट्रपति के संदर्भ का विरोध
बहस के दौरान केरल की ओर से ददील देने वाले वरिष्ठ अधिवक्ता के के वेणुगोपाल और तमिलनाडु की ओर से दलील देने वाले कपिल सिब्बल ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट के पिछले आदेशों में राष्ट्रपति मुर्मू के संदर्भों का उत्तर दिया जा चुका है जिसमें 8 अप्रैल का वो ऐतिहासिक फैसला भी शामिल है जो राज्यपालों को उचित समय में बिल पर हस्ताक्षर करना जरूरी बनाता है.
उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया कि राष्ट्रपति का संदर्भ अनावश्यक था क्योंकि मौजूदा निर्मयों में पहले ही राज्यपाल के विवेकाधिकार की सीमाओं को संबोधित किया जा चुका है, विशेष रूप से अनुच्छेद 200 के तहत जो यह बताता है कि राज्यपाल को राज्य विधानमंडल द्वारा पारित विधेयकों को किस प्रकार संभालना चाहिए.
किस बात पर है विवाद
इस पूरे मामले में संवैधानिक प्रश्न ये है कि क्या सुप्रीम कोर्ट राष्ट्रपति और राज्यपालों को विधेयकों पर विचार करने की समय सीमा तय कर सकती है या नहीं.
राज्य बनाम केंद्र
एक ओर जहां बीजेपी शासित राज्य विधेयकों पर विचार करने में राष्ट्रपति और राज्यपाल की स्वायत्तता का समर्थन कर रहे हैं वहीं विपक्ष शासित राज्य इसका विरोध कर रहे हैं.