Student Suicides: भारत में शिक्षा को हमेशा जीवन बदलने वाली शक्ति माना गया है, लेकिन हालिया आंकड़े बताते हैं कि यह शक्ति कहीं न कहीं छात्रों के लिए दबाव और निराशा का कारण भी बन रही है. राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) की 2023 की रिपोर्ट ने चौंकाने वाला सच सामने रखा है-पिछले दस वर्षों में छात्र आत्महत्याओं के मामलों में 65% की वृद्धि हुई है. 2023 में ही 13,892 छात्रों ने अपनी जान दे दी, जो 2022 की तुलना में 6.5% अधिक है.
यह स्थिति केवल आंकड़ों तक सीमित नहीं है, बल्कि देश के भविष्य को गहरे संकट की ओर ले जाती है. महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और तमिलनाडु जैसे राज्य इस सूची में सबसे आगे हैं. सरकार ने "मनोदर्पण" और टेली-मानस जैसी पहल शुरू की हैं, लेकिन सवाल यह है कि क्या ये प्रयास छात्रों की जिंदगी बचाने के लिए पर्याप्त साबित हो रहे हैं या अभी और गहरी नीतिगत सोच की ज़रूरत है.
2023 में भारत में कुल आत्महत्याओं की संख्या 1,71,418 रही, जिसमें से 8.1% छात्र थे. यानी हर 12 में से 1 आत्महत्या करने वाला छात्र था. यह आंकड़ा देश के शिक्षा तंत्र, सामाजिक दबाव और मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं पर गंभीर सवाल उठाता है.
2013 से 2023 के बीच करीब 1,17,849 छात्रों ने आत्महत्या की. यह दर्शाता है कि बीते एक दशक में शिक्षा और प्रतिस्पर्धा की दौड़ छात्रों के लिए कितनी घातक साबित हो रही है.
सबसे ज्यादा छात्र आत्महत्याएं महाराष्ट्र (14.7%), मध्य प्रदेश (10.5%), उत्तर प्रदेश (9.9%) और तमिलनाडु (9.6%) में दर्ज की गईं. यह क्षेत्रीय असमानताओं और स्थानीय शिक्षा व्यवस्थाओं की चुनौतियों को भी उजागर करता है.
रिपोर्ट के अनुसार, अधिकांश आत्महत्या करने वाले छात्र दसवीं और बारहवीं तक पढ़े थे. केवल 5.5% स्नातक या उससे ऊपर के थे. यह इस बात का संकेत है कि शुरुआती शिक्षा स्तर पर ही मानसिक दबाव सबसे ज्यादा होता है.
केंद्र सरकार ने "मनोदर्पण" कार्यक्रम और "टेली-मानस" हेल्पलाइन शुरू की हैं. मनोदर्पण परामर्श सत्र और टोल-फ्री नंबर (8448440632) उपलब्ध कराता है, जबकि टेली-मानस हेल्पलाइन (14416, 1800-891-4416) ने 20 भाषाओं में 23 लाख से अधिक कॉल संभाली हैं.
मार्च 2024 में सुप्रीम कोर्ट ने इस मुद्दे पर एक राष्ट्रीय टास्क फोर्स बनाई, ताकि छात्रों की मानसिक समस्याओं से निपटने के उपाय सुझाए जा सकें. हालांकि, अभी इसकी अंतरिम रिपोर्ट अदालत को सौंपी जानी बाकी है.
विशेषज्ञों का मानना है कि छात्रों पर केवल शिक्षा का नहीं, बल्कि परिवार और समाज की उम्मीदों का भी बोझ होता है. यह बोझ कई बार बच्चों को टूटने पर मजबूर कर देता है.
विशेषज्ञ इस बात पर जोर देते हैं कि शिक्षा के साथ-साथ मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं को भी अनिवार्य रूप से स्कूलों और कॉलेजों में शामिल करना होगा.
आंकड़े साफ दिखाते हैं कि समस्या बड़ी है और समय रहते इसे सुलझाना बेहद जरूरी है. वरना यह संकट आने वाले वर्षों में और गहराता जाएगा.