कर्नाटक की सत्ता पर भी पड़ी छत्तीसगढ़ की परछाईं! किसने सुनाई डीके शिवकुमार को बघेल वाली कहानी? जानें
कर्नाटक में ढाई ढाई साल के फॉर्मूले को लेकर चर्चा तेज है. डीके शिवकुमार को छत्तीसगढ़ की सियासी कहानी के जरिए चेतावनी दी गई है.
रायपुर: कर्नाटक की राजनीति में एक बार फिर ढाई ढाई साल के फॉर्मूले को लेकर चर्चा तेज हो गई है. डिप्टी सीएम डीके शिवकुमार की ओर से नेतृत्व परिवर्तन को लेकर दबाव बनाए जाने के बीच पार्टी के अंदर ही एक वरिष्ठ नेता ने उन्हें छत्तीसगढ़ की सियासी कहानी याद दिलाई है. यह कहानी मौजूदा हालात से काफी मिलती जुलती मानी जा रही है. पार्टी से जुड़े सूत्रों के मुताबिक छत्तीसगढ़ में भी सत्ता बनने के समय ढाई ढाई साल का फॉर्मूला सामने आया था.
उस वक्त एक शीर्ष नेता की मौजूदगी में यह भरोसा दिया गया था कि सत्ता का बंटवारा बराबरी से होगा. शुरुआत में यह व्यवस्था सभी को मंजूर लगी और सरकार बिना किसी विवाद के आगे बढ़ती रही. लेकिन जैसे ही ढाई साल पूरे होने का समय नजदीक आया, सरकार में नंबर दो की भूमिका निभा रहे नेता ने मुख्यमंत्री पद पर अपनी दावेदारी पेश कर दी.
अंत में पार्टी ने क्या तय किया?
इसके बाद पार्टी के भीतर खींचतान शुरू हो गई. आलाकमान स्तर पर कई दौर की बैठकें हुईं और समाधान खोजने की कोशिशें की गईं. इसी दौरान एक और बड़े नेता की एंट्री ने समीकरण पूरी तरह बदल दिए. अंत में पार्टी ने यह तय किया कि मौजूदा मुख्यमंत्री को हटाना आसान नहीं है. ढाई ढाई साल का वादा अधूरा रह गया और नेतृत्व परिवर्तन नहीं हुआ.
क्या हुआ इसका नतीजा?
चुनाव भी उसी मुख्यमंत्री के नेतृत्व में लड़ा गया. नतीजा यह रहा कि पार्टी को चुनावी हार का सामना करना पड़ा. आज उसी पूरे घटनाक्रम को कर्नाटक के लिए एक चेतावनी के रूप में देखा जा रहा है. सूत्रों का कहना है कि कर्नाटक में भी मौजूदा नंबर एक नेता को रिप्लेस करना आसान नहीं है.
यही वजह है कि पार्टी आलाकमान लगातार संतुलन बनाने की कोशिश कर रहा है. बातचीत का दौर जारी है और किसी भी तरह की जल्दबाजी से बचने की रणनीति अपनाई जा रही है.
फिलहाल क्या मिल रहे हैं संकेत?
फिलहाल संकेत यही हैं कि नंबर दो नेता को अपनी मौजूदा भूमिका में रहते हुए अपेक्षाकृत फ्री हैंड दिया जा सकता है. उनसे कहा जा सकता है कि वे सरकार के कामकाज पर फोकस रखें और चुनाव तक इंतजार करें. इससे संगठन और सरकार दोनों में संतुलन बनाए रखने की कोशिश की जा रही है.
हालांकि अंतिम फैसला क्या होगा, यह पूरी तरह सियासी गणित और आलाकमान की रणनीति पर निर्भर करेगा. लेकिन इतना तय माना जा रहा है कि कर्नाटक में ढाई ढाई साल का फॉर्मूला अब सिर्फ प्रशासनिक व्यवस्था नहीं रह गया है. यह आने वाले समय में राज्य की राजनीति की दिशा तय करने वाला बड़ा मुद्दा बन चुका है.
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