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'दबाव बनाने का हथियार', जस्टिस स्वामीनाथन पर महाभियोग चलाने के विपक्ष के कदम पर भड़के 56 पूर्व जज

मद्रास हाईकोर्ट के जस्टिस जी.आर. स्वामीनाथन के खिलाफ विपक्षी सांसदों द्वारा लाए गए इम्पीचमेंट प्रस्ताव के खिलाफ देशभर के 56 से अधिक पूर्व जजों ने तीखी प्रतिक्रिया दी है, इसे न्यायपालिका पर दबाव बनाने की खतरनाक कोशिश बताया है.

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Kuldeep Sharma

नई दिल्ली: जस्टिस स्वामीनाथन के एक फैसले के बाद शुरू हुआ राजनीतिक विवाद अब देशभर में बड़े संवैधानिक विमर्श का रूप ले चुका है. डीएमके समेत विपक्षी दलों द्वारा इम्पीचमेंट प्रस्ताव लाने के कदम ने न्यायपालिका की स्वतंत्रता को लेकर गंभीर बहस छेड़ दी है. 

इस माहौल में 56 से अधिक पूर्व जजों, जिनमें सुप्रीम कोर्ट और कई हाईकोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश शामिल हैं ने एक कड़े बयान में चेतावनी दी है कि यह कदम लोकतंत्र की जड़ों पर प्रहार जैसा है.

पूर्व जजों का कड़ा विरोध

पूर्व जजों ने एक संयुक्त पत्र में कहा कि जस्टिस स्वामीनाथन के खिलाफ लाया गया इम्पीचमेंट प्रस्ताव 'न्यायपालिका को डराने और झुकाने' का प्रयास है. उनका कहना था कि किसी न्यायिक आदेश को आधार बनाकर इस स्तर की कार्रवाई न तो संवैधानिक है और न ही न्यायिक परंपरा के अनुरूप.

आपातकाल जैसे दौर की याद

पत्र में पूर्व जजों ने चेतावनी दी कि यह स्थिति उन्हें आपातकाल के समय की उन घटनाओं की याद दिलाती है, जब असहमत रहने वाले जजों को हाशिए पर धकेला गया था. उन्होंने कुछ ऐतिहासिक उदाहरणों का भी जिक्र किया, जिन्हें वे न्यायपालिका पर दबाव डालने की पुरानी प्रवृत्ति बताते हैं.

न्यायपालिका पर दबाव की कोशिश?

पूर्व जजों ने कहा कि इम्पीचमेंट जैसी गंभीर प्रक्रिया का इस्तेमाल राजनीतिक प्रतिशोध के हथियार की तरह करना बेहद खतरनाक है. उनका कहना था कि इससे न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर ऐसा दबाव पड़ेगा जो लंबे समय में संस्थानों को नुकसान पहुंचा सकता है.

तमिलनाडु से उठा विवाद

यह विवाद उस समय भड़का जब जस्टिस स्वामीनाथन ने थिरुप्परंकुंद्रम पहाड़ी पर दीपथून स्तंभ पर कार्तिगई दीपम दीप जलाने का आदेश दिया. इस स्थान के पास मौजूद सिकंदर बादूशा दरगाह के कारण इसे संवेदनशील माना जाता था, लेकिन अदालत ने कहा कि दीप जलाने से किसी समुदाय के अधिकार प्रभावित नहीं होते.

संविधान के प्रति जवाबदेही

पूर्व जजों ने सांसदों और समाज से अपील की कि इस कदम को शुरुआत में ही रोक दिया जाए, क्योंकि न्यायाधीश संविधान के प्रति जवाबदेह होते हैं, न कि राजनीतिक दबावों के प्रति. उनका मानना है कि ऐसे प्रयास देश की न्यायिक व्यवस्था को दीर्घकाल में कमजोर कर सकते हैं.