अरावली विवाद क्या है? 1990 से जुड़ी हैं जड़ें, यहां जानिए तब से अब तक क्या-क्या हुआ

अरावली पर्वतमाला एक बार फिर विवाद के केंद्र में है. सुप्रीम कोर्ट द्वारा अरावली की नई परिभाषा को मंजूरी मिलने के बाद अवैध खनन और पर्यावरण सुरक्षा को लेकर चिंता बढ़ गई है.

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Reepu Kumari

अरावली पर्वतमाला भारत की सबसे पुरानी पर्वत श्रृंखलाओं में गिनी जाती है. यह सिर्फ पहाड़ों का समूह नहीं, बल्कि उत्तर भारत की पर्यावरणीय ढाल भी है. हाल के दिनों में सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले के बाद अरावली फिर सुर्खियों में आ गई है. इस फैसले ने पहाड़ों की परिभाषा को लेकर पुराने विवाद को दोबारा जगा दिया है. इसके असर राजस्थान, हरियाणा और दिल्ली-एनसीआर तक महसूस किए जा रहे हैं.

अरावली को लेकर चिंता इसलिए भी बढ़ी है क्योंकि यह क्षेत्र अवैध खनन, घटते जल स्तर और तेजी से खत्म हो रहे जंगलों से पहले ही जूझ रहा है. पर्यावरण विशेषज्ञ चेतावनी दे रहे हैं कि अगर अरावली कमजोर हुई, तो इसका सीधा असर राजधानी दिल्ली के मौसम और पानी पर पड़ेगा. चलिए जानते हैं यह विवाद कैसे शुरु हुआ और अबतक क्या-क्या हुआ.

अरावली में अवैध खनन की शुरुआत

1990 के दशक में अरावली क्षेत्र में अवैध खनन की शिकायतें सामने आने लगीं. संगमरमर और ग्रेनाइट जैसे खनिजों की मांग बढ़ने से पहाड़ियों को तेजी से काटा गया. इसका नतीजा यह हुआ कि कई इलाकों में पहाड़ियां गायब होने लगीं और भूजल स्तर गिरता चला गया. पर्यावरणीय नुकसान बढ़ने पर मामला न्यायपालिका तक पहुंचा और पहली बार सुप्रीम कोर्ट ने इसमें दखल दिया.

खनन पर पहली बड़ी रोक कब लगी

अवैध खनन की जांच के बाद सेंट्रल एम्पावर्ड कमेटी ने 2002 में हरियाणा और राजस्थान के कई हिस्सों में खनन पर रोक लगाने की सिफारिश की. रिपोर्ट में बताया गया कि खनन से पर्यावरण को अपूरणीय क्षति हो रही है. इसके बाद अरावली क्षेत्र में खनन पर सख्त प्रतिबंध लगाया गया, हालांकि कुछ पुराने पट्टों को सशर्त राहत दी गई.

सुप्रीम कोर्ट का शुरुआती रुख

राजस्थान सरकार ने खनन पर रोक को चुनौती दी, जिसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने मौजूदा पट्टों पर सीमित खनन की अनुमति दी. कोर्ट का मानना था कि बिना संतुलन बनाए विकास संभव नहीं है. हालांकि पर्यावरण समूहों ने इसे नाकाफी बताया और अरावली को पूरी तरह सुरक्षित क्षेत्र घोषित करने की मांग उठाई.

मर्फी फॉर्मूले से बढ़ा विवाद

2003 में बनाई गई एक समिति ने अमेरिकी विशेषज्ञ रिचर्ड मर्फी के सिद्धांत के आधार पर अरावली की परिभाषा तय की. इसके अनुसार 100 मीटर से अधिक ऊंचाई वाली पहाड़ियों को ही अरावली माना गया. इससे कम ऊंचाई वाले कई क्षेत्र खनन के लिए खुल गए. यही फॉर्मूला आगे चलकर सबसे बड़ा विवाद बना.

सरकार बदलने के बाद भी खनन जारी

राजस्थान में सत्ता परिवर्तन के बाद भी मर्फी फॉर्मूले के आधार पर खनन गतिविधियां जारी रहीं. खनन से राजस्व बढ़ा, लेकिन इसके साथ ही पर्यावरणीय असंतुलन भी तेज हुआ. कई इलाकों में जंगल सिमटने लगे और वन्यजीवों का प्राकृतिक आवास प्रभावित हुआ.

2005 में सुप्रीम कोर्ट की सख्ती

पर्यावरण संगठनों की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने 2005 में नए खनन पट्टों पर रोक लगा दी. कोर्ट ने साफ कहा कि बिना पर्यावरणीय मूल्यांकन के किसी भी तरह की खनन गतिविधि स्वीकार्य नहीं होगी. यह फैसला अरावली संरक्षण के लिहाज से अहम माना गया.

हरियाणा में पूर्ण प्रतिबंध का फैसला

2009 में सुप्रीम कोर्ट ने हरियाणा के फरीदाबाद, गुरुग्राम और मेवात में खनन पर पूरी तरह रोक लगा दी. यह फैसला अवैध खनन के खिलाफ बड़ा कदम साबित हुआ और इससे अरावली के कुछ हिस्सों को राहत मिली.

फॉरेस्ट सर्वे रिपोर्ट ने खोली आंखें

2010 में फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया की रिपोर्ट में सामने आया कि राजस्थान के कई जिलों में अरावली की पहाड़ियां तेजी से खत्म हो रही हैं. रिपोर्ट के बाद सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र और राज्यों को अरावली की स्पष्ट परिभाषा तय करने के निर्देश दिए.

नई परिभाषा से क्यों बढ़ी टेंशन

2025 में केंद्र सरकार ने अरावली की नई परिभाषा अधिसूचित की, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने लागू कर दिया. इसके तहत केवल 100 मीटर या उससे अधिक ऊंची पहाड़ियों को अरावली माना जाएगा. पर्यावरणवादियों का कहना है कि इससे अरावली का बड़ा हिस्सा खनन के लिए खुल सकता है और इसका असर दिल्ली-एनसीआर तक पड़ेगा.

आगे क्या है रास्ता?

अरावली विवाद अब सिर्फ पर्यावरण नहीं, बल्कि राजनीति और विकास से भी जुड़ गया है. एक ओर खनन लॉबी है, तो दूसरी ओर पर्यावरण संगठन. आने वाले समय में सुप्रीम कोर्ट और सरकार के फैसले तय करेंगे कि अरावली सुरक्षित रहेगी या विकास की भेंट चढ़ेगी.