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Independence Day Special: एक ऐसा दानवीर जिसने आजादी के लिए बेच दिए 27 बंगले... बेटे तक को रख दिया गिरवी, कहा जाता था 'कैश बैग'

15th August: 15 अगस्त को देश अपनी आजादी का 77 वां वर्ष मनाएगा. हिंदुस्तान को आजाद कराने के लिए भारत माता के लाखों सपूतों ने अपना जीवन कुर्बान किया. देश की आजादी में आर्थिक मदद देने वाले दानवीरों से आप शायद ही परिचित हों. आज हम आपको एक ऐसे ही दानवीर की कहानी बताएंगे, जिन्होंने देश को आजाद कराने अपने बेटे तक को गिरवी रख दिया था.

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Edited By: Gyanendra Tiwari
Independence Day Special: एक ऐसा दानवीर जिसने आजादी के लिए बेच दिए 27 बंगले... बेटे तक को रख दिया गिरवी, कहा जाता था 'कैश बैग'

नई दिल्ली. आने वाले 15 अगस्त के दिन भारत अपनी आजादी का 77वां साल मनाएगा. स्वतंत्रता दिवस के जश्न को मनाने के लिए पूरा देश तैयार है. देश को आजाद कराने के लिए भारत माता के लाखों वीर सपूतों ने अपना बलिदान दिया. किसी ने हंसते हंसते अंग्रेजी शासन के पांव तले से जमीन खिसका कर फांसी के फंदे को चूम लिया तो किसी ने अहिंसा के मार्ग पर चलकर ब्रिटिश हुकूमत की नींव हिला डाली. ऐसे अनेकों योद्धा रहे जो अपने-अपने तरीके से भारत माता की आजादी के लिए लड़े. इनमें से कुछ गुमनाम सिपाही भी रहे, जिनके बारे में बहुत कम लोगों को ही पता है. जैसे जब कोई फिल्म बनती है तो लोग उसके हीरो, हीरोइन को तो जान लेते हैं लेकिन वो फिल्म किसके पैसों से बन रही है या किसने बनाई है इसके बारे में बहुत कम लोग ही जान पाते हैं.  

भारतीय आजादी की जो पटकथा लिखी गई इसमें कुछ दानवीरों ने अथाह पैसा लुटाया. इतना पैसा की अपने बड़े बड़े आलीशान बंगले बेच दिए, व्यापार को बेच दिया. जब पैसों की किल्लत आई तो अपने बेटे तक को भी गिरवी रख दिया.आज हम आपको उसी नायक से मिलाएंगे जिसने देश की आजादी के लिए खून से कमाई हुई अपनी सारी संपत्ति बिना मोह के दान कर दी. ऐसे ही कई गुमनाम नायकों की कहानी से शायद ही आप परिचित हों.  

भारत में एक ऐसा दान वीर पैदा हुआ, जिसने आजादी के लिए अपनी कमाई हुई एक-एक जमा पूंजी लगा दी. उसकी कहानी जानना हम भारतीयों के लिए किसी गर्व से कम नहीं.  

कौन है वो दानवीर?   
जिस दानवीर की हम बात कर रहे हैं उसका नाम हाजी उस्मान सेठ है, जिसने हिंदुस्तान को आजाद कराने में अपनी एक-एक पाई लगा दी. उस समय शायद ही कोई दूसरा भारतीय बिजनेसमैन रहा होगा जिसने उस्मान साहब की तरह अथाह पैसा दान किया हो. उन्होंने देश को अंग्रेजों की गुलामी से आजाद कराने के लिए पानी की तरह पैसा बहाया. उनके अंदर भगत सिंह वाली क्रांति थी तो गांधी जी वाली सहनशक्ति. अपने देश को आजाद कराने के लिए अपनी और अपने बेटों की जिंदगी भी हंसते-हंसते दांव पर लगा दी थी.  

उनका जन्म 1887 ई. में बेंगलुरु में हुआ था. वह एक बड़े मुस्लिम परिवार से संबंध रखते थे. उनके पिता गुजरात के कच्छ के बड़े कपड़ा व्यापारी थे. बाद में वो कर्नाटक की राजधानी बेंगलुरु में रहने लगे थे. उनके पिता राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर के बड़े उद्योगपति थे. उनके दादा यूसुफ मोहम्मद पीर ने व्यापार का साम्राज्य खड़ा किया था.  

पिता से मिलने वाले व्यापार को हाजी उस्मान सेठ ने आसमान की ऊंचाइयों तक पहुंचाया. व्यापार में उन्हें कोई टक्कर देने वाला नहीं था. 'कच्छी मेमन बिजनेसमैन' (Cutchi Memon Businessman) नाम की किताब लिखने वाले लेखक नरेंद्र के वी जी हाजी साहब के बारे में लिखते हैं कि उनका व्यापार और रईसी उनके दादा यूसुफ मोहम्मद पीर कमाई हुई मेहनत थी. उन्होने अपने बेटों को विरासत में देने के लिए 27 बड़े भव्य बंगले बनवाए थे.  

बेंगलुरु में खोला पहला सुपर मार्केट   
नरेंद्र के वी की मानें तो बेंगलुरु का पहला सुपर मार्केट ‘कैश फ़ार्मेसी’ उस्मान साहब के व्यापारिक जिंदगी में मील का पत्थर साबित हुआ था. स्टोर में हर एक चीज मिलती थी. यह बेंगलुरू के सेंट मार्क रोड पर स्थित था. इस मार्केट में सुई से लेकर विदेश आने वाले हर एक सामान मिलता था. इसे उस समय के सबसे बड़े मॉलों में से एक माना जाता था.  

पहले विश्व युद्ध के दौरान जब ब्रिटेन ने अपने अफसरों को भेजा तो उनके जीवन शैली के अनुरूप वस्तुओं का आयात करने के लिए कुछ ही बड़े सैन्य ठेकेदार थे, जिसमें हाजी उस्मान सेठ का नाम शामिल था.  

खोला थियेटर   
फिल्मी दुनिया आगे बढ़ रही थी. बड़े-बड़े लोग थियेटर में फिल्म देखा करती थी. उस समय ओपेरा थियेटर बहुत फेमस हुआ करता था. उसी की तर्ज पर हाजी उस्मान साहब ने इंपीरियल थिएटर खोला था. इसमें अंग्रेजी फिल्में चलाई जाया करती थी.  

आजादी की लड़ाई में कूद गए   
जो व्यापारी धंधे में नई कहानी लिख रहा था. तरक्कियों की सीढ़ियां चढ़ रहा था. अचानक उसके दिमाग में देश प्रेम के लिए इतना गहरा प्रेम जागा की वो अंग्रेजों का बहिष्कार करने लगे. खिलाफत आंदोलन के दौरान उनकी अली बंधुओं से मुलाकात हुई. यहीं पर वो गांधी से मिले. 1919 वो साल था जब उन्होंने आजादी का चोला पहना. उनके रग-रग में  देश को स्वतंत्र कराने की हनक सवार हो गई. इस आंदोलन के बाद वो यूरोप से आयात किए जाने वाले सामानों का विरोध करने लगे.  

हाजी उस्मान साहब ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ज्वाइन कर ली और गांधी जी के फॉलोअर्स बन गए. महात्मा गांधी ने 1920 में असहयोग आंदोलन की शुरुआत की. इसके तहत देश में विदेशी सामानों का विरोध किया जा रहा था. इससे प्रेरित होकर उस्मान साहब ने अपने कैश बाजार में रखे लाखों के विदेशी सामानों को आग के हवाले कर दिया. इससे अंग्रेज उनसे जलने लगे. उन्होंने उनके कई व्यापार पर प्रतिबंध लगा दिया. इसके बाद उस्मान साहब ने जीवन के अपने अंतिम सांस तक खादी ही पहना था.  

अब उस्मान एक व्यापारी नहीं रहे. वो एक क्रांतिकारी बन चुके थे. महात्मा गांधी की तरह. उन्हें खिलाफत वाले कहा जाने लगा था. वो ब्रिटिश हुकूमत की नजरों में आ गए थे. उन्होंने कैश बाजार को बेच दिया. अब वह देश को आजाद कराने वाली हर एक गतिविधी में भाग लेने लगे थे. महात्मा गांधी और पंडित नेहरू से उनकी मुलाकात हो चुकी थी. वह दोनों से बड़े प्रभावित हुए थे.  

खोला दिया इण्डियन नेशनल स्कूल   
वो असहयोग आंदोलन से इतने प्रभावित हुए कि हिंदुस्तान के गरीब बच्चों के लिए अंग्रेजों के इंग्लिश मीडियम स्कूल के जवाब में हाजी उस्मान सेठ ने इण्डियन नेशनल स्कूल खोल दिया. इस स्कूल में गरीब भारतीय बच्चे पढ़ा करते थे. उन्हें स्वदेशी व्यवस्था के तहत पढ़ाया जाता था.  

सौंप दिया ब्लैंक चेक
1920 में पैसों की वजह से नॉन कोऑपरेटिव मूवमेंट कमजोर होने लगा था. महात्मा गांधी को इस आंदोलन को चालू रखने के लिए एक दानवीर की जरूरत थी. इस स्थिति में अली बंधु के साथ महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू उस्मान साहब के पास पहुंचे. उन्हें आंदोलन और पैसों की समस्या से अवगत कराया. इसके बाद हाजी उस्मान सेठ ने एक सेकेंड सोचे बिना गांधी जी के हाथों में एक ब्लैंक चेक थमा दिया और बोला जितनी रकम भरनी है भर लें. चेक के साथ  दस किलो सोने के जेवरों से भरा बैग भी उन्होंने महात्मा गांधी और जवाहर लाल नेहरू को थमा दिया.  

उस्मान साहब देश की आजादी में हर तरह से योगदान देना चाहते थे. उन्होंने गांधी से कहा की आप निश्चिंत रहे अपने देश की आजादी के लिए मेरे पास जो भी कुछ है मै वह सब कुछ लगा दूंगा. पैसों की जब भी जरूरत पड़ेगी मैं सदैव देश की सेवा के लिए तत्पर रहूंगा. उन्होंने मरते दम तक अपने इस प्रण को निभाया.  

कांग्रेस के ‘कैश बैग’ थे हाजी उस्मान साहब   
देश को आजाद कराने के लिए हाजी उस्मान साहब अथाह पैसा लगा रहे थे. उन्हें भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का कैश बैग कहा जाने लगा था. वो उस दौर में भारतीय नेताओं के लिए 'कैश बैग' ही हुआ करते थे. हिंदुस्तान की आजादी के लिए अथाह पैसा लगा रहे थे. अपनी कमाई हुई सारी संपत्ति उन्होंने देश को आजाद कराने में लगा दी थी.  

उनकी इस उदारता के लिए जितनी तारीफ की जाए वो कम पड़ जाएगी. उस समय जब एक वोर देश के कुछ गद्दार अंग्रेजों का साथ दिया करते थे, तब भारत माता को आजाद कराने के लिए उस्मान साहब अपनी कमाई हुई सारी संपत्ति लगा चुके थे. उनके पास अब अचल संपत्ति बची थी.  

बेच दिया बंगला   
उन्होंने अपने 7 बेटों को रियासत में देने के लिए 27 भव्य बंगले बनवाए थे. सोचा था बेटों निशानी के रूप में यही बंगले देंगे लेकिन समय ऐसा आया कि उन्होंने महात्मा गांधी और कांग्रेस को देश की आजादी के लिए पैसा देने के लिए अपने अपने 27 आलीशान बंगलों को बिना सोचे बेच दिया. आप सोचिए अपनी मेहतन की खून कमाई से जिन बंगले को उन्होंने बनवाया था, जिसे देश की आजादी के लिए बिना नि:संकोच उस्मान साहब ने बेच दिया.  

आदादी कि इस लड़ाई में वो धन तो दे ही रहे थे साथ ही साथ जमीनी स्तर पर भी काम कर रहे थे. वो मैसूर स्टेट कांग्रेस कमिटी के अध्यक्ष भी रहे थे. आजादी की लड़ाई में  उन्हें 3 बार जेल भी जाना पड़ा था.  

बेटे को गिरवी रख दिया   
वो लगगभ-लगभग हर एक आदोंलन में भाग लिया करते थे. वो अपना सारा धन दान कर चुके थे. उनके पास कुछ नहीं बचा था. बस उनके बेटे पुत्र बचे थे. एक सेठ जो कभी अपनी अमीरी के लिए जाना जाता था, उसने अपना सारा धन देश को आजाद कराने में लगा दिया. उसके पास खुद के रहने को घर नहीं बचा था. किराए के मकान में रहता था. वो अपना सब कुछ दान कर चुके थे.  

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को दान देने के लिए उनके पास अब कुछ नहीं बचा था. दान देने के लिए उन्हें पैसों की फिर जरूरत पड़ी. इसके लिए उन्होंने अपने बड़े बेटे इब्राहिम को नीलाम कर दिया. उनके एक करीबी दोस्त ने नीलामी में उनके बेटे को खरीदा था. बेटे को निलाम करके मिली रकम को उन्हें खुशी-खुशी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को दे दी.  

कितनी संपत्ति हाजी उस्मान ने दान में दी थी   
अपने जमाने का एक बड़ा व्यापारी, जिसका रसूख इतना था कि अंग्रेजी व्यापारी भी उनका मुकाबला करने के लिए संकोच किया करते थे. कांग्रेस को उन्होंने अथाह धन दान किया था. अगर आज के हिसाब से हम उस्मान साहब द्वारा कांग्रेस को दान में दी गई संपत्ति का आकलन करे तो यह लगभग 7000 करोड़ रुपए होगी. हालांकि हम उनके द्वारा दान में दी गई राशि का आकलन नहीं कर सकते. उस कीमत को किसी भी तराजू पर नहीं तौला जा सकता है. उन्होंने अपना सब कुछ न्योछावर कर दिया था. इस दानवीर की कहानी इतनी मार्मिक है कि आप के आंसू से भी आंसू निकल गए होंगे.  

इतना बड़ा व्यापारी जो पूरे शहर को पाल सकता था, जीवन के अपने अंतिम दौर में वह किराए के मकान में रहा करता था. यहां तक की उस्मान साहब ने अपनी अंतिम सांस भी किराए के मकान में ही ली थी. अपना सब कुछ दान करने के बाद वो आर्थिक तंगी से जूझते रहे थे. साल 1932 में किराए के मकान में उन्होंने अपने जीवन की अंतिम सांस ली थी.  

उनके अंतिम संस्कार में अथाह भीड़ इकठ्ठा हुई थी. शिवाजीनगर में जुम्मा मस्जिद से लेकर जय महल पैलेस कब्रिस्तान तक उनके अंतिम यात्रा में सड़क लोगों से भरी थी. 5 किलोमीटर तक सड़क पर सिर्फ लोग ही लोग ही दिख रहे थे.  

हाजी उस्मान साहब 20 सदी के देश के इकलौते ऐसे दानवीर थे, जिन्होंने कांग्रेस को दान में रुपए देने के लिए अपने बेटे तक को गिरवी रख दिया था.शायद ही ऐसा कोई दूसरा दानवीर रहा होगा. उनकी कहानी हम सबके लिए प्रेरणादायक रही है. हम ऐसे गुमनाम नायकों को नमन करते है. आजादी के 77 वर्ष के उपलक्ष में देश इस नायक को दिल से सलाम करता है.   

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