कोविड में पैदा होने वाले बच्चे हो सकते हैं HMPV वायरस का शिकार? जानें क्या है 'इम्यूनिटी डेब्ट'

HMPV Virus: कोविड-19 के बाद अब ह्यूमन मेटा-न्यूमोवायरस (HMPV) ने चिंता बढ़ा दी है, जो खासतौर पर छोटे बच्चों को प्रभावित कर रहा है. इसके लक्षण सर्दी-जुकाम जैसे होते हैं और यह फेफड़ों व श्वास नली में इनफेक्शन करता है. भारत में अब तक इसके 7 मामले सामने आए हैं. इससे बच्चों, बुजुर्गों और कमजोर इम्यूनिटी वाले लोग अधिक प्रभावित हो सकते हैं.

Shilpa Srivastava

HMPV Virus: कोविड-19 ने दुनिया में जो भय पैदा किया, वह आज भी लोगों के दिलों में ताजा है. इस खतरनाक वायरस से लाखों लोगों ने अपनी जान गंवाई. अब, एक नए वायरस ह्यूमन मेटा-न्यूमोवायरस (HMPV) ने चिंता बढ़ा दी है. यह वायरस खासतौर पर छोटे बच्चों पर असर डाल रहा है. भारत में अब तक इसके 7 मामले सामने आए हैं, जिनमें सबसे छोटा मरीज 8 महीने की बच्ची है.

HMPV के लक्षण और खतरे: HMPV के लक्षण सामान्य सर्दी-जुकाम जैसे होते हैं. यह फेफड़ों और श्वास नली में इंफेक्शन करता है, जिससे बच्चों और कमजोर इम्यूनिटी वाले लोगों पर इसका असर ज्यादा होता है. 5 वर्ष से कम उम्र के बच्चों, बुजुर्गों, गर्भवती महिलाओं और अस्थमा या श्वसन समस्याओं से जूझ रहे लोगों को यह वायरस ज्यादा प्रभावित कर सकता है.

'इम्युनिटी डेब्ट' क्या है?

महामारी के दौरान पैदा हुए बच्चों पर ज्यादा संकट बताया जा रहा है. ऐसा इसलिए क्योंकि आमतौर पर माता-पिता बच्चों को जमीन पर छोड़ देते थे खेलने के लिए या फिर बच्चे और भी कई चीजें करते थे जिससे उन्हें फ्लू या सर्दी-जुकाम हो जाता था. लेकिन कोविड के समय जो बच्चे पैदा हुए थे उन्हें ज्यादा निगरानी में पाला गया और वो किसी भी नॉर्मल वायरस के कॉन्टैक्ट नहीं आए जिससे उनकी बॉडी को इस तरह के वायरस या फ्लू से लड़ने की आदतन हीं है. जब हम लोगों को फ्लू होता या किसी भी तरह की तबियत खराब होती है तो हमारी बॉडी उस पर रिएक्ट करती है और वायरस से लड़ती है. लेकिन जो बच्चे कोविड के समय पैदा हुए हैं उनकी इम्यूनिटी कमजोर बताई जा रही है क्योंकि उनकी बॉडी को वायरस से लड़ने की आदत नहीं है. 

बचाव के उपाय: 

HMPV से बचने के लिए हाथ धोना, मास्क पहनना और भीड़भाड़ वाली जगहों से बचना जरूरी है. खांसने-छींकने वाले लोगों से दूरी बनाए रखें और साबुन या सैनिटाइजर का इस्तेमाल करें.

HMPV का इतिहास: 

बताया गया है कि यह वायरस नया नहीं है. इसे 2000 में डच वैज्ञानिकों ने खोजा था. 1958 में भी इसके मामले नीदरलैंड में मौजूद थे. हालांकि, हाल ही में मामलों में वृद्धि के कारण यह सुर्खियों में आया है.