Jallianwala Bagh Hatyakand: हवा में वो सिसकियां आज भी सुनाई देती हैं, जलियांवाला बाग का वो खामोश खून हर साल पुकारता है. दादा जी की धीमी आवाज में सुनाई देने वाला वो किस्सा आज भी मेरे रोंगटे खड़े कर देता है. उन दिनों दादा जी अमृतसर में रहते थे. जलियांवाला बाग के पास ही उनका घर था.
बैसाखी के दिन वहां हर साल मेला लगता था. उस साल भी हजारों लोग खुशियां मनाने जमा हुए थे. दादा जी भी अपने दोस्तों के साथ मेले का लुत्फ उठा रहे थे. अचानक बंदूकें की तड़तड़ाहट गूंज उठी. चारों तरफ चीख-पुकार मच गई.
दादा जी ने बताया कि कैसे उन्होंने भगदड़ में अपनी माँ का हाथ छोड़ दिया. कैसे गोलियां बरस रही थीं और मौत हर तरफ मंडरा रही थी. कैसे वो एक टूटे हुए खंडहर में घंटों छुपे रहे थे. बाहर निकलने पर उन्होंने जो मंजर देखा वो आज भी उनकी आंखों में तैरता है. जमीन खून से लथपथ थी, लाशों का ढेर लगा था. हर तरफ सन्नाटा था, सिवाय उन मांओं के विलाप के जिनके लाडले छीन लिए गए थे.
वो वाकया बताते हुए दादा जी की आवाज भर्रा उठती थी. उनके चेहरे पर गुस्सा भी झलकता है और आंखों में दर्द भी. जलियांवाला बाग का वो हत्याकांड सिर्फ एक घटना नहीं थी, वो एक जख्म था जो ना जाने कितनी पीढ़ियों के दिलों में भर गया.
उस दिन की बेरहमी को याद कर के आज भी खून खौल जाता है. मासूम लोगों का कत्ले आम, वो अंग्रेजों का पाशवी चेहरा हमेशा याद रखा जाएगा. जलियांवाला बाग सिर्फ एक स्मारक नहीं है, वो उन शहीदों की याद दिलाता है जिन्होंने अपनी जान दे दी लेकिन अपना सम्मान नहीं झुकाया. उनकी शहादत हमें ये सीख देती है कि जुर्म के खिलाफ कभी आवाज दबने नहीं देनी चाहिए.
उस दिन के बाद अमृतसर की गलियों में एक अलग सन्नाटा छा गया. लोगों के चेहरे उतरे हुए थे, आंखों में डर था. दादा जी बताते हैं कि कैसे उनके बचपन की खुशियां उस दिन खत्म हो गईं. उनके आस-पास कई ऐसे परिवार थे जिन्होंने अपने अपनों को खो दिया था. हर घर में मातम का साया था.
ऊपर लिखी कहानी मेरे दोस्त हरविंदर सिंह के दादा कुलविंदर सिंह की हैं जो कि अमृतसर के पास फतेहगढ़ जिले के रहने वाले थे. उनकी कहानी खुद बताती है कि जलियांवाला बाग इतिहास का वो अध्याय है, जिसे पढ़ते वक्त आंखों में नमी आ जाती है. ये वो जगह है जहां 1919 में अमन की तलाश कर रहे लोगों पर बेरहमी से गोलियां चलाई गईं थीं. निर्दोष लोग मौत के घाट उतारे गए थे.
उस दिन वैसाखी का त्योहार मनाने वाले लोग जश्न मनाने के लिए एक साथ जमा हुए थे और उन्हें इस बात की बिल्कुल भी भनक नहीं थी कि ये खुशी का दिन मौत का तांडव बन जाएगा. जनरल डायर के आदेश पर सैनिकों ने बाग को चारों तरफ से घेर लिया और बिना किसी चेतावनी के गोलियां चलानी शुरू कर दीं.
दहशत का माहौल बन गया. लोग भागने लगे. मगर भागते कहां जाते? बाग चारों तरफ से घिरा हुआ था. कुआं मौत का कुआं बन गया. गोलियों की बौछार में सैकड़ों बेगुनाह मारे गए. जलियांवाला बाग में सिर्फ गोलियां नहीं चली थीं, उस दिन वहां मानवता का कत्ल हुआ था. मासूमियत तड़पाई गई थी. मां अपने बच्चों को ढूंढ रही थीं. हर तरफ चीख-पुकार मची हुई थी.
जलियांवाला बाग सिर्फ एक जगह नहीं है, ये उन शहीदों की यादगार है जो अमन की तलाश में मौत के गाल में जा मिले. ये उन मासूमों की याद दिलाता है जिनके सपने उस खूनी शाम को अधूरे रह गए. जलियांवाला बाग हमें ये भी याद दिलाता है कि हमें अपनी आजादी को कभी कम नहीं आंकना चाहिए. आज हम आजाद हैं, खुले आसमान के नीचे सांस लेते हैं. लेकिन ये आजादी हमें उन शहीदों की वजह से मिली है जिन्होंने अंग्रेजों के जुल्म के खिलाफ आवाज उठाई. जलियांवाला बाग का स्मरण हमें ये संकल्प कराने की प्रेरणा देता है कि हम अपने देश की रक्षा के लिए हमेशा तैयार रहेंगे और कभी भी किसी तरह के अत्याचार को बर्दाश्त नहीं करेंगे.