Ghughutiya Festival 2025: उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल में मकर संक्रांति के दिन को बड़े उत्साह और धूमधाम से घुघुतिया त्योहार के रूप में मनाया जाता है. इस त्योहार का खास आकर्षण है पारंपरिक पकवान घुघुते, जिन्हें कौवों को खिलाने की परंपरा से जोड़ा जाता है. यह त्योहार न केवल धार्मिक बल्कि सांस्कृतिक महत्व भी रखता है और उत्तराखंड की अनोखी परंपराओं से जोड़ कर रखता है.
घुघुते खास तौर से आटा और गुड़ से बनाए जाते हैं. इन्हें कौवों को खिलाने का रिवाज है. मान्यता है कि मकर संक्रांति के दिन कौवे गंगा में स्नान करके हर घर में घुघुते खाने आते हैं. बच्चे इन्हें गाने गाकर बुलाते हैं.
‘काले कौवा काले घुघुति माला खा ले’
‘लै कौवा भात में कै दे सुनक थात’
‘लै कौवा लगड़ में कै दे भैबनों दगड़’
‘लै कौवा बौड़ मेंकै दे सुनौक घ्वड़’
‘लै कौवा क्वे मेंकै दे भली भली ज्वे’
इस परंपरा के तहत बच्चों के लिए घुघुते की माला बनाई जाती है और उन्हें पहनाकर कौवों को आमंत्रित किया जाता है.
घुघुते आमतौर पर हिंदी के अंक ‘4’ की आकृति में बनाए जाते हैं. इनके अलावा, दूसरी आकृतियां जैसे तलवार, ढाल, डमरू और दाड़िम के फूल भी बनाई जाती हैं. इन घुघुतों को माला में पिरोकर बीच में संतरा और दूसरे फल लगाए जाते हैं. घुघुतिया त्योहार से जुड़ी एक काफी मशहूर कहानी के अनुसार, चंद वंश के राजा कल्याण चंद की कोई संतान नहीं थी. उन्होंने भगवान से संतान प्राप्ति के लिए प्रार्थना की, और उन्हें एक पुत्र मिला, जिसका नाम घुघुती रखा गया.
घुघुती की मां उसे प्यार से एक माला पहनाती थी और कहती, 'काले कौवा काले, घुघुती की माला खा ले.'
एक बार, एक मंत्री ने राजपाट हड़पने के लिए घुघुती का अपहरण कर लिया. लेकिन कौवों ने घुघुती की माला लेकर राजा तक यह संदेश पहुंचाया. राजा ने मंत्री को सजा दी और अपने पुत्र को बचा लिया. राजा और रानी ने कौवों का आभार प्रकट करने के लिए घुघुते बनाकर उन्हें खिलाए. तभी से यह परंपरा चली आ रही है.
सरयू नदी के पूर्वी हिस्से में इसे पुषूडिया त्यार के नाम से जाना जाता है और यह पर्व पौष मास के अंतिम दिन मनाया जाता है. सरयू नदी के दूसरे छोर पर इसे माघ मास के पहले दिन, यानी मकर संक्रांति के दिन मनाया जाता है.
घुघुतिया पर्व न केवल कौवों के लिए कृतज्ञता प्रकट करता है, बल्कि यह प्रकृति और मानव के आपसी संबंधों की गहरी समझ को भी दर्शाता है. यह पर्व बच्चों के लिए खास रूप से रोमांचक होता है, जहां वे कौवों को बुलाने के लिए गाते हैं और त्योहार का आनंद लेते हैं.
घुघुतिया पर्व उत्तराखंड की जीवंत संस्कृति और परंपरा को संजोकर रखता है. यह न केवल कौवों और घुघुते की कहानी से जुड़ा है, बल्कि नई पीढ़ी को अपनी सांस्कृतिक जड़ों से जोड़ने का माध्यम भी है.